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क्या काव्योत्सव का रिजल्ट आ गया? कृपया बताएं
मैदानों के दुख सपाट सतहों में फैले भूरभूरे सूखे पत्तों से हल्के गर्म रेत पर पके पहाडों से अनुबंधित बादलों की प्रतीक्षा में आँखों की कोर पर अटे नंगे,अनमने दुख सावन की राह से सटे भरी झोली में करते वलवले मैदानों के दुख कौन पाटे किससे पटे! ** यूं ही। लता खत्री
kavyotsav-2 एक दिन जब तुम जानोगे कि, सुंदरता में कुछ नहीं था जो सुंदर था! एक दिन तुम जानोगे कि,जिस पर भरोसा कर तुम हाथ जोड़ते रहे प्रार्थना में दिन-रात वो ईश्वर अस्तित्वहीन था! एक दिन तुम जानोगे कि,समुंदर में उतरे थे जिस नाविक पर भरोसा कर के वो नौसिखिया था! एक दिन तुम जानोगे... तब तुम पाओगे ठगा-सा खुद को! हताशा के उन पलों में ,, अपने कंधे थपथपा लेना.. क्योंकि अंधेरे में जो तीर चलाये थे तुमने वो ज्यादातर निशाने पे जा लगे थे। #तारणहार लता
#kavyotsav -2 अनदेखा किया करती हूं फिर हंसती हूं क्षण-क्षण में जिया करती हूं फिर हंसती हूं तोड़ा ख़ुद ही ख़ुद को फ़िर बना डाला प्याले रोज़ पिया करती हूं फिर हंसती हूं बुन ली चादर पांव छुपाने की खातिर टूटा रोज़ सीया करती हूं फिर हंसती हूं तुम को शान-ओ-शौकत की विरासत है जोगन मैं जिया करती हूं फिर हंसती हूं #लता
#kavyotsav -2 एकल संवाद बादल छितराए से आये है बहुत दिनों बाद.. धूप है कि हार मानने को राज़ी नहीं.. मौसम विभाग खीसे निपोर रहा है हमेशा की तरह.. बाढ़-आपदा के लिए बनाई गई नावों को दीमक चाट गई एक मशीन करती जा रही कानफोड़ू शोर 'पूरानी चद्दरें दे दो गूदड़ी सील दूंगी' कहती है लोहारन रेडियो बजाता है 'रसिक बलमा हाय रे..' सपने में दिखाई दी मां, चूल्हे से कुरेद रही थी राख 'सारे बुकमार्क्स खो गए हैं मेरे' उसने सबसे कहा, किंतु सुना सिर्फ उस ने ही था 'तुम्हारी आवाज को ज़ंग लग गई है जरा तेज बोला कर भुनभुनाने वाली लड़की' उसने अभी अभी कहा खुद से उबलते हुए दूध में फूंक देते हुए। *** लता
#kavyotsav -2 एक को ठोकर लगने पर दुसरे को तकलीफ़ होगी; इसी भ्रम में संभल कर चलना आ गया चाहे छोटे-छोटे कंकड़ों से होते रहे पांव घायल कबूतर कंकड़ चुगते हैं तुमने कहा था मैं कंकड़ों को चुनती रही गेहूं की बालियों से एक दिन सारे खेत कंकड़ में बदल जायेंगे और पत्थर उड़ने लगेंगे कबूतर की तरह सालों पहले अस्पताल में दिये गए एनेस्थीसिया के असर में क्या अब भी हूं? तुम बताओ ना क्या मुझे फिर होश नहीं आया था? मेरा स्थाई पता क्या है इन दिनों! #लता
#काव्योत्सव -2 गढ़ने से पहले मिट्टी को धूप में भलीभांति सुखाकर खत्म किया स्वाभिमान का पानी वह आश्वस्त होना चाहता था ऐसा करके 'टिकाऊ बने रहने के लिए ज़रूरी था फफूंद का इलाज सब तुम्हारी भलाई के लिए किया...!' विदा करने से पहले उसने प्रथम बार कहे आखिरी शब्द! *** यूँ ही।
#काव्योत्सव -2 पहाड़ जब चलें आते चौके में छींकने लगते हैं छौंक की खुशबू से और पिघलने लगते हैं रोटी की तपन में- जैसे तर्क नहीं टिकते रसोई में जन्में बुद्धिजीवियों के 'तुम क्या जानो' के व्यंग्य सुनकर, धुंध नहीं ठहरती रसोई की दराजों में घबराहट भरी चिपचिपाहट में वो ढूंढ लेतीं हैं एग्ज़िट चिमनी के रास्ते। **** #लता
#काव्योत्सव -2 जैसे कुम्हार गीली मिट्टी से लीप देता है चाक पर घूमते घड़े पर आई दरार, जैसे रफूगर अपनी कारीगरी दिखाता है कपड़े में अकारण आये छेद पर या कभी-कभी जानबूझकर किये गए पर भी कोई निरंतर लगाता रहता लेप सिलता है धागे बनाता रहता है सुंदर और सुंदर भीतरी इलाका ** #लता
#kavyotsav -2 मैं अपनी रसोई की दराजों में पेन रखती हूं तेल की चिपचिपाहट अक्सर हावी होने लगती है अक्षरों पर! लिखते हुए रिक्तता आ जाती है बीच-बीच में कहीं जो रिक्त छुट गया,बस वही.. वही तो कहना होता है हमें इन दिनों परीक्षा का पेपर हल करने में लगी रहती हूं वही! जिसमें लिखा होता है -----रिक्त स्थानों की पूर्ति किजिए! तुम्हारे साम्राज्य में मेरी सेंध रिक्त पद भरने तक की है केवल यूं तुम अपना ताज न संभाला करो! मैंने रसोईघर में कमा रखें हैं ताज बहुत.. जो बड़े सुकून से रहते हैं छोटे-छोटे तिलचट्टों के बीच! #लता #बस #ऐसे #ही !
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