The Download Link has been successfully sent to your Mobile Number. Please Download the App.
113
74.3k
492k
Lawyer,Author, Poet, Mob:9990389539 Listen my Poem at:https://www.youtube.com/channel/UCCXmBOy1CTtufEuEMMm6ogQ?view_as=subscriber
इस सृष्टि में कोई भी वस्तु बिना कीमत के नहीं आती, विकास भी नहीं। अभी कुछ दिन पहले एक पारिवारिक उत्सव में शरीक होने के लिए गाँव गया था। सोचा था शहर की दौड़ धूप वाली जिंदगी से दूर एक शांति भरे माहौल में जा रहा हूँ। सोचा था गाँव के खेतों में हरियाली के दर्शन होंगे। सोचा था सुबह सुबह मुर्गे की बाँग सुनाई देगी, कोयल की कुक और चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ेगी। आम, महुए, अमरूद और कटहल के पेड़ों पर उनके फल दिखाई पड़ेंगे। परंतु अनुभूति इसके ठीक विपरीत हुई। शहरों की प्रगति का असर शायद गाँवों पर पड़ना शुरू हो गया है। इस कविता के माध्यम से मैं अपनी इन्हीं अनुभूतियों को साझा कर रहा हूँ। प्रस्तुत है मेरी कविता "मेरे गाँव में होने लगा है शामिल थोड़ा शहर" का प्रथम भाग। मेरे गाँव में होने लगा है शामिल थोड़ा शहर [प्रथम भाग】 मेरे गाँव में होने लगा है, शामिल थोड़ा शहर, फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है , और थोड़ा सा जहर। -------- मचा हुआ है सड़कों पे , वाहनों का शोर, बुलडोजरों की गड़गड़ से, भरी हुई भोर। -------- अब माटी की सड़कों पे , कंक्रीट की नई लहर , मेरे गाँव में होने लगा है, शामिल थोड़ा शहर। --------- मुर्गे के बांग से होती , दिन की शुरुआत थी, तब घर घर में भूसा था , भैसों की नाद थी। -------- अब गाएँ भी बछड़े भी , दिखते ना एक प्रहर, मेरे गाँव में होने लगा है , शामिल थोड़ा शहर। -------- तब बैलों के गर्दन में , घंटी गीत गाती थी , बागों में कोयल तब कैसा , कुक सुनाती थी। -------- अब बगिया में कोयल ना , महुआ ना कटहर, मेरे गाँव में होने लगा है , शामिल थोड़ा शहर। -------- पहले सरसों के दाने सब , खेतों में छाते थे, मटर की छीमी पौधों में , भर भर कर आते थे। -------- अब खोया है पत्थरों में , मक्का और अरहर, मेरे गाँव में होने लगा है , शामिल थोड़ा शहर। -------- महुआ के दानों की , खुशबू की बात क्या, आमों के मंजर वो , झूमते दिन रात क्या। -------- अब सरसों की कलियों में , गायन ना वो लहर, मेरे गाँव में होने लगा है , शामिल थोड़ा शहर। -------- वो पानी में छप छप , कर गरई पकड़ना , खेतों के जोतनी में, हेंगी पर चलना। -------- अब खेतों के रोपनी में , मोटर और ट्रेक्टर, मेरे गाँव में होने लगा है , शामिल थोड़ा शहर। -------- फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है , और थोड़ा सा जहर। मेरे गाँव में होने लगा है, शामिल थोड़ा शहर। -------- अजय अमिताभ सुमन सर्वाधिकार सुरक्षित
द्रोण को सहसा अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु के समाचार पर विश्वास नहीं हुआ। परंतु ये समाचार जब उन्होंने धर्मराज के मुख से सुना तब संदेह का कोई कारण नहीं बचा। इस समाचार को सुनकर गुरु द्रोणाचार्य के मन में इस संसार के प्रति विरक्ति पैदा हो गई। उनके लिये जीत और हार का कोई मतलब नहीं रह गया था। इस निराशा भरी विरक्त अवस्था में गुरु द्रोणाचार्य ने अपने अस्त्रों और शस्त्रों का त्याग कर दिया और युद्ध के मैदान में ध्यानस्थ होकर बैठ गए। आगे क्या हुआ देखिए मेरी दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया के छत्तीसवें भाग में।
समाज की बेहतरी की दिशा में आप कोई कार्य करें ना करे परन्तु कार्य करने के प्रयासों का प्रचार जरुर करें। आपके झूठे वादों , भ्रमात्मक वायदों , आपके प्रयासों की रिपोर्टिंग अखबार में होनी चाहिए। समस्या खत्म करने की दिशा में गर कोई करवाई ना की गई हो तो राह में आने वाली बाधाओं का भान आम जनता को कराना बहुत जरुरी है। आपके कार्य बेशक हातिमताई की तरह नहीं हो लेकिन आपके चाहनेवालों की नजर में आपको हातिमताई बने हीं रहना है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि सारा मामला मार्केटिंग का रह गया है । जो अपनी बेहतर ढंग से मार्केटिंग कर पाता है वो ही सफल हो पाता है, फिर चाहे वो राजनीति हो या कि व्यवसाय।
किसी व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य जब मृत्यु के निकट पहुँच कर भी पूर्ण हो जाता है तब उसकी मृत्यु उसे ज्यादा परेशान नहीं कर पाती। अश्वत्थामा भी दुर्योधनको एक शांति पूर्ण मृत्यु प्रदान करने की ईक्छा से उसको स्वयं द्वारा पांडवों के मारे जाने का समाचार सुनाता है, जिसके लिए दुर्योधन ने आजीवन कामना की थी । युद्ध भूमि में घायल पड़ा दुर्योधन जब अश्वत्थामा के मुख से पांडवों के हनन की बात सुनता है तो उसके मानस पटल पर सहसा अतित के वो दृश्य उभरने लगते हैं जो गुरु द्रोणाचार्य के वध होने के वक्त घटित हुए थे। अब आगे क्या हुआ , देखते हैं मेरी दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया" के इस 35 वें भाग में।
ईश्वर किसी एक धर्म , किसी एक पंथ या किसी एक मार्ग का गुलाम नहीं। अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने से ज्यादा अप्रासंगिक मान्यता कोई और हो हीं नहीं सकती । परम तत्व को किसी एक धर्म या पंथ में बाँधने की कोशिश करने वालों को ये ज्ञात होना चाहिए कि ईश्वर इतना छोटा नहीं है कि उसे किसी स्थान , मार्ग , पंथ , प्रतिमा या किताब में बांधा जा सके। वास्तविकता तो ये है कि ईश्वर इतना विराट है कि कोई किसी भी राह चले सारे के सारे मार्ग उसी की दिशा में अग्रसित होते हैं।
सृष्टि के कण कण में व्याप्त होने के बावजूद परम तत्व, ईश्वर या सत , आप उसे जिस भी नाम से पुकार लें, एक मानव की अंतर दृष्टि में क्यों नहीं आता? सुख की अनुभूति प्रदान करने की सम्भावना से परिपूर्ण होने के बावजूद ये संसार , जो कि परम ब्रह्म से ओत प्रोत है , आप्त है ,व्याप्त है, पर्याप्त है, मानव को अप्राप्त क्यों है? सत जो कि मानव को आनंद, परमानन्द से ओत प्रोत कर सकता है, मानव के लिए संताप देने का कारण कैसे बन जाता है? इस गूढ़ तथ्य पर विवेचन करती हुई प्रस्तुत है मेरी कविता "क्यों सत अंतस दृश्य नहीं?"
जब देश के किसी हिस्से में हिंसा की आग भड़की हो , अपने हीं देश के वासी अपना घर छोड़ने को मजबूर हो गए हो और जब अपने हीं देश मे पराये बन गए इन बंजारों की बात की जाए तो क्या किसी व्यक्ति के लिए ये हँसने या आलोचना करने का अवसर हो सकता है? ऐसे व्यक्ति को जो इन परिस्थितियों में भी विष वमन करने से नहीं चूकते क्या इन्हें सर्प की उपाधि देना अनुचित है ? ऐसे हीं महान विभूतियों के चरण कमलों में सादर नमन करती हुई प्रस्तुत है मेरी व्ययंगात्मक कविता "साँप की हँसी होती कैसी"?
#श्रीराम #राजनीति #धर्म #व्ययंग #Shreeram #Politics #Satire #Kavita #Poetry #Hindi_Kavita मर्यादा पालन करने की शिक्षा लेनी हो तो प्रभु श्रीराम से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता। कौन सी ऐसी मर्यादा थी जिसका पालन उन्होंने नहीं किया ? जनहित को उन्होंने हमेशा निज हित सर्वदा उपर रखा। परंतु कुछ संस्थाएं उनके नाम का उपयोग निजस्वार्थ सिद्धि हेतू कर रही हैं। निजहित को जनहित के उपर रखना उनके द्वारा अपनाये गए आदर्शो के विपरीत है। राम नाम का उपयोग निजस्वार्थ सिद्धि हेतु करने की प्रवृत्ति के विरुद्ध प्रस्तुत है मेरी कविता "क्या क्या काम बताओगे तुम"।
चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राज गुरु, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, खुदी राम बोस, मंगल पांडे इत्यादि अनगिनत वीरों ने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में हंसते हंसते अपनी जान को कुर्बान कर दिया। परंतु ये देश ऐसे महान सपूतों के प्रति कितना संवेदनशील है आज। स्वतंत्रता की बेदी पर हँसते हँसते अपनी जान न्यौछावर करने वाले इन शहीदों को अपनी गुमनामी पर पछताने के सिवा क्या मिल रहा है इस देश से? शहीदों के प्रति उदासीन रवैये को दॄष्टिगोचित करती हुई प्रस्तुत है मेरी कविता "अफसोस शहीदों का"।
Continue log in with
By clicking Log In, you agree to Matrubharti "Terms of Use" and "Privacy Policy"
Verification
Download App
Get a link to download app
Copyright © 2022, Matrubharti Technologies Pvt. Ltd. All Rights Reserved.
Please enable javascript on your browser