UJALE KI OR - 37 books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - 37

उजाले की ओर


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स्नेही मित्रों

नमस्कार

मानव-मन बहुत जल्दी दुखी हो जाता है |कोई बात किसीके विपरीत हुई नहीं कि मन उसको अपने ऊपर ढाल लेगा,दुखी हो जाएगा,इतना दुखी कि कई-कई दिनों तक उस मन:स्थिति से बाहर नहीं निकल पाएगा जिसमें येन-केन वह चला गया है अथवा उसे जाना पड़ा है |

एक और बात बहुत ही मनोरंजक बात है ,मन को प्रभावित भी करती है और पीड़ा भी देती है कि हम मनुष्य अपना काफ़ी समय किसी न किसीके बारे में बातें करने में गंवा देते हैं |यदि कुछ सकारात्मक बात हो तब भी ठीक है किन्तु हमारे मन में दूसरों के बारे में चर्चा करने की इतनी उत्सुकता बनी रहती है कि जहाँ हमें अवसर प्राप्त होता है वहाँ हम सात तालों में से भी ऎसी बात निकालकर ले आते हैं जिसको चटकारे लेकर सुनने से हम सुख की चरम-सीमा पर पहुँच जाते हैं , हम उस अवसर को गँवाने में अपनी हार मानने लगते हैं |मैं स्वयं एक महिला हूँ अत: यह बात अधिक ज़ोर देकर कह रही हूँ कि महिलाओं के बारे में यह बात अधिक सटीक है |हम महिलाओं की बड़ी सूक्ष्म दृष्टि होती है ,कौन?कहाँ?किसका ? हमें सब कुछ जानना होता है और जानकर यदि उस पर चर्चा न करें तो पेट में दर्द होना तो निश्चित है ही |वैसे ऐसा नहीं है कि पुरुष वर्ग हमें साथ नहीं देता |हाँ,प्रतिशत कुछ कम ज़रूर है पुरुषों की ,फिर भी भई समाज में हर तरह के लोग हैं |जब तक किसीके बारे में चर्चा न करें,किसीकी दो-चार बातें न करें दिन सुख से नहीं बीतता |

मजेदार बात यह है कि हम अपने प्यारे मित्रों को एक-एक को पकड़कर गुपचुप चर्चा करते हैं,फिर उनसे यह भी कहते हैं कि ‘बस ,आपसे ही बात कह रहे हैं ,आप किसीसे इस बात का ज़िक्र मत करियेगा ‘ |पता चलता है इस प्रकार बात करके हमने कम से कम दस लोगों तक तो अपने आप बात फैला ही दी है |इस प्रकार की बातें रोज़ाना ही कभी किसी के बारे में तो कभी किसी के बारे में होती रहती हैं | और जब हमें पता चलता है कि हमारे उन्हीं मित्रों में से किसीने हमारे बारे में भी वैसी ही बातें की हैं जैसी हम उनके बारे में करते रहते हैं तब हम दुःख से ज़ार ज़ार ! इतने दुखी हो जाते हैं कि अपने मन में न जाने उसे कितने विशेषणों से सजाने लगते हैं ,हमें उसका मित्र होना बहुत खराब लगता है ,लगता है –हाय ! वह हमारे बारे में ऐसा कैसे कह सका ?हमने तो उसे अपना कितना अच्छा मित्र अथवा पड़ौसी माना था |पर हम यह भूल जाते हैं कि हमने जो उसके बारे में बातें कीं ,उनका क्या ? उसे क्या हमसे कम पीड़ा होगी जब उसे पता चलेगा कि हम उसके बारे में अनर्गल प्रलाप करते रहे हैं अथवा उसकी अथवा उससे जुड़े लोगों की बात को चटकारे ले-लेकर सुनते-सुनाते रहे हैं |

हम स्वयं को शिक्षित समझते हैं किन्तु वास्तव में शिक्षित का अर्थ तक नहीं समझते क्योंकि हम सबकी आलोचना में ही अपना समय खराब कर देते हैं और फिर स्वयं दुखी होते हैं|हम उन दुखों को ओढ़ने-बिछाने लगते हैं जिनका कहीं अता-पता ही नहीं होता ,हम स्वयं उनकी बुनियाद डालते हैं,फिर इधर-उधर से पता लगने पर इतने क्षीण अथवा उग्र हो जाते हैं जैसे हमारे ऊपर कोई गाज गिर गई हो| अगर ध्यान से सोचें तो क्या वास्तव में हमें कोई दुखी कर सकता है ? हम स्वयं ही स्वयं को दुखी करते हैं और आहें भरते हैं |

इसीके साथ एक बात और जोड़ दूँ कि हम किसी भी व्यक्ति के बारे में खूब जाँच –पड़ताल क्र लेटर हैं ,खूब चर्चाएँ भी कर लेते हैं ,खूब देर तक चटकारे भी लिए जाते हैं और जब हम अलग होने लगते हैं ,यह कहना नहीं भूलते ;

“ठीक है ,हमें क्या ---हैं न भई?”

सो भई,

संभल जा ऐ दिल यूँ शिकार करना ठीक नहीं

और अगर कर रहा है तो शिकायत करने से लाभ नहीं |

आज इस बात पर चिंतन करते हैं कि क्या हम भी तो ऐसे ही मित्रों अथवा पडौसियों में से तो नहीं जो ऐसे सुख में अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं ?

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती