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मेरे घर आना ज़िंदगी - 24

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(24)

इन दिनों यूट्यूब चैनलों की बाढ़ सी आ गई है दिल्ली के ललित कुमार मिश्र का यूट्यूब चैनल वर्जिन स्टूडियो नाम से है। उन्होंने मेरी कविताएं लघुकथाएं और कहानियां मांगी । सत्तर परसेंट रॉयल्टी की बात भी की । रचनाएं अमेजॉन और किंडल में भी उपलब्ध रहेंगी । उन्होंने मेरा अकाउंट खोला और "गौतम से राम तक" कविता मेरी ही आवाज में शूट कर वीडियो बनाया। फिर डिजिटल वॉयस वर्ल्ड यूट्यूब चैनल जयपुर के हरिशंकर व्यास और सुनीता राजपाल ने मेरी 8 कविताओं के अलग-अलग वीडियो बनाकर मेरी कलम और आवाज को विश्व स्तर पर पहुंचा दिया। सत्यनारायण पटेल ने भी अपने बिजूका ब्लॉग के लिए मेरी कविताएं लीं। धीरे-धीरे कविताओं की ओर मेरा रुझान बढ़ता गया और मैंने पाया कि कविताएं मेरी ऊर्जा हैं। जिनकी नसैनी पर चढ़कर मैं गद्य का फलक तैयार करती हूँ । शायद यही वजह है कि मैं सम्मेलनों में कविताएं गजलें कम ही पढ़ पाती हूं । मुझे लगता है अगर मैंने ऐसा किया तो श्रोताओं द्वारा उनकी पसंद की गई कुछ ही कविताओं तक सिमटकर रह जाऊंगी। जबकि गद्य के साथ ऐसा नहीं है। हमारी रचनाएं श्रोताओं द्वारा पसंद की जाती हैं। तो विस्तार भी पाती हैं। गद्य में मेरे नाम को महत्वपूर्ण मानते हुए उर्मिला शिरीष ने मुझे स्पंदन में कहानी पाठ के लिए आमंत्रित किया। ललित कलाओं के लिए समर्पित यह संस्था विभिन्न विधाओं पर ढेर सारे पुरस्कार भी देती है। इस बार का विषय था "स्त्री सृजनात्मकता एक यात्रा "इसी कार्यक्रम में बरसों बाद मेरी निर्मला भुराड़िया से मुलाकात हुई। इंदौर में दैनिक अखबार नई दुनिया में वे फीचर एडिटर हैं और जब मैं मुंबई में थी उन्होंने मुझे खूब छापा था । इसी कार्यक्रम में शरद सिंह और इंदिरा दांगी भी आई । मेरी कहानी "अजुध्या की लपटें" को श्रोताओं का अच्छा प्रतिसाद मिला । एक तो कहानी सांप्रदायिक दंगों के बीच उभरती प्रेम कथा पर थी। दूसरे छोटी थी तो कम समय में खत्म हो गई।

1 अप्रैल को विदिशा में बालकवि पुष्प की पुण्यतिथि पर सम्मेलन था। भोपाल से हम चार मित्रों ने मिलकर टैक्सी ली और सुबह 7:00 बजे विदिशा के लिए रवाना हो गए। सम्मेलन दिन भर चला। 6 बजे भोपाल वापसी । 9 बजे घर पहुंचे। एग्जरशन इतना अधिक हो गया कि दूसरे ही दिन से मसल्स पेन ने धर दबोचा। लगा जैसे कोई आरी से अंदर ही अंदर मेरी दाहिनी जांघ और कूल्हे को काट रहा है। जल बिन मछली जैसी तड़पती रही ।

पदमा शर्मा को विदिशा में वचन दे आई थी कि शिवपुरी में मध्य प्रदेश साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कहानी पाठ के लिए जरूर आऊंगी। दर्द और तड़प में भी कि एक-दो दिन में दर्द चला जाएगा मैंने बेंजामिन से कहकर बस से रिजर्वेशन भी करा लिया था। पर नियति को कुछ और मंजूर था। डेढ़ महीने बिस्तर तक ही कैद होकर रह गई। होम्योपैथी, आयुर्वेदिक दवाएं और दर्द....... असहनीय दर्द .....प्रकृति के पास भी पूरा हिसाब रहता है। मैं अपनी उम्र को भूलकर काम में जुटी रहती थी । साहित्यिक समारोहों के आयोजन लेखन और अध्ययन...... अब क्या उम्र रही थी कि इतनी मेहनत कर पाऊं बिना आराम किए ? सो दर्द देकर आराम करा दिया प्रकृति ने । जब किसी भी तरह दवाओं से आराम नहीं मिला तब नवोदित कवयित्री मधुलिका सक्सेना जो विश्व मैत्री मंच की सदस्य है ने फिजियोथैरेपी की सलाह दी। इलाज बहुत महंगा था । फिजियोथैरेपिस्ट डॉ माहेश्वरी ने मधुलिका के दोनों घुटने जिनके लिए ऑपरेशन की सलाह दी गई थी ठीक कर दिए थे सो भरोसा बढ़ा । ₹600 प्रतिदिन की फीस देनी होगी। डॉ मशीनें लेकर घर आने लगे एक बड़ी मशीन तो घर में ही परमानेंट रख दी । 23 दिन इलाज चला।

शिवपुरी में मेरी तस्वीर के बैनर भी बन गए । जाना नामुमकिन । पदमा शर्मा जी ने उदास होकर कहा "क्या पता अगले साल मैं शिवपुरी न रहूं । "

मेरी आवाज भी नम थी ।

"आना तो चाहा था पदमा जी पर......."

और इस "पर "को ललित लालित्य द्वारा ग्वालियर में हो रहे पुस्तक मेले के दौरान दो दिवसीय सम्मेलन में मुझे कहानी पाठ के लिए मिले आमंत्रण के लिए ललित लालित्य से फोन पर असमर्थता के दौरान दोहराना पड़ा। कहानी पाठ मेरे अतिरिक्त ममता कालिया, चित्रा मुद्गल और उर्मिला शिरीष का भी था ।

यूं ही कभी-कभी जिंदगी से मौके मुट्ठी में बंद रेत से फिसल जाते हैं । जून में जाना था विद्या सिंह के पास देहरादून, आशा शैली के पास लालकुआं, मई में वृंदावन में मेरे नाम सजलरथी साहित्य सम्मान भी घोषित किया गया पर अटेंड कहां कर पाई।

सच है वक्त अपनों की पहचान करा देता है। मेरी बीमारी पर कोई भी मेरा रिश्तेदार मुझे देखने नहीं आया । सबके पास नौकरी से छुट्टी न मिलने का बहाना था । यह बात मेरी समझ से परे थी । कब किसकी जिंदगी सहज प्रवाह में चलती हैं। परेशानियां भागदौड़ हर एक के साथ हर वक्त चस्पां रहती हैं। पर उसी में से अपनों के लिए वक्त निकालना पड़ता है। पर नहीं निकाला वक्त उन लोगों ने । और वह वक्त मेरे अंतस में घाव करके चला गया। शायद में वैसी तकदीर लेकर नहीं आई इसलिए दिल के घाव को बिना मलहम के उघाडे ही रखे हूं। यही कसक तो मुझे हौसला देगी । अब तो बाढ़ तो दूर, भीतर की चटक की आहट से भी सचेत हो जाती हूं।

हो चुकी ग़ालिब बलाएं सब तमाम एक मर्गे नागहानि ( मृत्यु बाकी )और है।

लेकिन भोपाल कि मेरी मित्रों ने इस बीमारी में मेरा बहुत ज्यादा साथ दिया। कोई न कोई मुझे रोज देखने आता था और फल सब्जी आदि अपने साथ लाता था। दवाइयों के लिए पूछ लेता था । मेरे घर का दरवाजा दिन भर खुला रहता था। रात को मैं किसी तरह दीवार पकड़कर दरवाजे तक जाती थी। और उसे बंद कर देती थी और सुबह खोल देती थी। जबलपुर से केशव मुझे देखने आए। केशव ने पूछा "दीदी घर का नंबर बता दें। "

मैंने कहा " उस बिल्डिंग में जो दरवाजा खुला मिलेगा वह तुम्हारी दीदी का घर है अब देखते हैं कैसे पहुंचते हो मुझ तक ?"

और केशव सचमुच खुले दरवाजे से अंदर आए और बोले "लो दीदी मैं आ गया"

यही मित्र मेरे लिए संजीवनी का काम करते हैं और इन्हीं के सहारे में रफ्ता रफ्ता ज़िन्दगी की राह पर हूं।

मेरी बीमारी के दौरान भोपाल के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने मुंबई से सुलभा कोरे आई, हरीश पाठक आए, पटना से सतीश राज पुष्करणा आए, सूर्यबालाजी मुंबई से आई और यह सभी मुझसे मिलने मेरे घर आए।

सुलभा ने मुझे अपना कविता संग्रह "तासीर" भेंट किया जिसकी भूमिका पुष्पिता अवस्थी ने लिखी थी। सुलभा के संग वक्त का पता ही नहीं चला । उस दौरान दर्द भी कम महसूस हुआ। ढेरों बातें, मुंबई का साथ गुजरा अतीत ......मेरी छोटी छोटी खुशियां इन्हीं के संग तो जुड़ी हैं।

हरीश पाठक ने बताया कि लखनऊ में कार्यक्रम के बाद गेट टूगेदर में प्रियदर्शन ने खूब नमक मिर्च लगाकर वह सामान और सम्मान की गाथा बयान की। सच है दूसरों का दर्द बयां करने वाले लेखक भी वक्त आने पर कैसे अपनी पर उतर आते हैं । मगर हम तो हर फिक्र को धुएं में उड़ा देने का जज्बा रखते हैं तो मुस्कुरा कर कह दिया "चलिए इस बहाने चर्चा तो हुई हमारी। "

डॉ सतीश राज पुष्करणा जिन्हें मैं दादा कहती हूं कल्पना के संग आए। कल्पना भट्ट को वे बेटी मानते हैं। वो उन्हें बाबा कहती है। पुष्करणा दादा ने कल्पना से कहा "संतोष मेरी बहन है तुम इसे बुआ कहा करो कल्पना। "

तब से मैं कल्पना की बुआ हो गई। लंच हमने साथ लिया। उन्हें इंदौर लघुकथा सम्मेलन में जाना था । वही से वे पटना के लिए निकल गए। बता रही थी कल्पना कि रास्ते भर वे मेरे ही लिए चिंतित दिखे। कैसे रहती हैं अकेली संतोष । कठिन है उनका जीवन । भोपाल में कोई रिश्तेदार नहीं उनका। तुम उनसे बीच-बीच में फोन करके हालचाल पूछती रहना। वैसे भी सेल्फमेड है, जुझारू, आयरन लेडी। " और यही बात सूर्यबालाजी ने कही कि "तुम्हारी हिम्मत की दाद देती हूं संतोष। "

बस यही वाक्य तो मेरा हौसला बढ़ाते हैं। इसी हौसले की वजह से न चल फिर सकने की स्थिति में भी लगभग 35 लोगों की घर में ही मौजूदगी में हेमंत जयंती का आयोजन कर डाला । अजय श्रीवास्तव बड़ा सा फूलों का बुके लेकर आए। हेमंत की पसंद के लाल गुलाब। उन्होंने मेरे द्वारा आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के लिए हबीबगंज स्टेशन के सामने नर्मदा क्लब में जगह ऑफर की । अजय जी कवि हैं और बांसुरी भी बजाते हैं।

जया और नेहा किचन में। 3 किलो भजिए और 3 किलो जलेबीयां मंगवाई थीं। वे प्लेटों में सबके लिए परोस रही थीं। उसके पहले 23 मई को जीजाजी बड़ा सा केक लेकर आए थे । जिस पर हेमंत लिखा था। मधुलिका बेसन के लड्डू । न जाने कैसे सब हेमंत की पसंद की चीजें अपने आप जुटती जाती हैं। लोग भी जुड़ जाते हैं..... महफिल में सब के द्वारा उसकी कविताएं पढ़ना, उसे स्मरण करना, लगता है जैसे कोई अद्वितीय शै है या दैवी वरदान । नहीं रह कर भी हर वक्त मेरे साथ है।

हॉल खचाखच भर गया । कुर्सियां कम पड़ गईं तो चादर बिछ गई । दूसरे ही दिन दैनिक भास्कर, हरी भूमि, नव दुनिया, पत्रिका आदि अखबारों में समाचार छपा । मुंबई से मित्रों के फोन आए । कैसा रहा समारोह? क्या किया? बताओ ......

बताऊं कि हेमंत तो पूरी दुनिया का हो गया। पूरी दुनिया उसकी हो गई। अब बताने को रह ही क्या गया।

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मॉरीशस से रामदेव धुरंधर श्रीलाल शुक्ल सम्मान लेने भारत आए थे। वे भोपाल आ रहे थे। उर्वशी के संस्थापक निदेशक और मेरे मित्र राजेश श्रीवास्तव उनके सम्मान में मेरे साथ मिलकर यानी विश्व मैत्री मंच के बैनर तले एक गोष्ठी रखना चाहते थे । मैं भी खुश हो गई। 7 फरवरी मेरे ही निवास स्थान पर गोष्ठी का दिन तय हुआ।

गोष्ठी की बात जब राजुरकर राज जी को मिली तो उन्होंने मुझे फोन करके कहा कि" यह कोई घर में रखने वाली गोष्ठी है क्या? मॉरीशस से बड़ा साहित्यकार आया है । दुष्यंत संग्रहालय में मैंने उसी तारीख को गोष्ठी रखी है आप भी उसमें शामिल हो जाओ। "

मुझे बुरा लगना चाहिए था नहीं लगा। मैं कभी किसी की बात का बुरा नहीं मानती। बस अपनी कोशिश करती रहती हूं।

यह 6 फरवरी की बात है । शाम को धुरंधर जी का फोन आया "संतोष जी, गोष्ठी आपके घर पक्की है न। "

"जी आपको होटल से राजेश श्रीवास्तव जी पिकअप कर लेंगे। " बहरहाल आशातीत सफलता यानी की खूबसूरत शाम धुरंधर जी के साथ मेरे घर पर गुजरी। करीब 20 साहित्यकार शामिल हुए । किताबों का आदान-प्रदान, मॉरीशस के किस्से, ढेर सारे अनुभव हमने शेयर किए । समोसे बाहर से मंगवा लिए थे । गुलाबजामुन मेंने खुद बनाए थे।

धुरंधर जी के संग मॉरीशस के कृष्णानंद सेवा आश्रम को भी हमने याद किया। जब मैं अक्टूबर 2004 में 24 वें समकालीन साहित्य सम्मेलन में मॉरीशस गई थी तो कृष्णानंद सेवा आश्रम में आयोजित साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन में मेरी मुलाकात रामदेव धुरंधर जी से हुई थी। एक-एक कर जाने कितनी बातें याद आ गई। कृष्णानंद सेवा आश्रम हैंडीकैप्ड रिटायर्ड लोगों और अनाथ बच्चों का आश्रम है जो पूरी तरह डोनेशन पर चलता है लेकिन भारत से गए हम 35 साहित्यकारों का भव्य स्वागत हुआ। वहां ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट की ओर से हारमोनियम पर कृष्ण के भजन गाये गए "बाजे रे मुरलिया हरे हरे बांस से बनी रे मुरलिया"

लंच में गोभी मटर की सब्जी, ककड़ी का रायता, करारी पूरियां और भी बहुत कुछ । खाया नहीं गया । आँखें भर आई थी । मुझे लगा जैसे मैं असहाय लोगों का हिस्सा खा रही हूं । तब धुरंधर जी ने ही मुझसे खाने का आग्रह किया था ।

"खा लीजिए कृष्ण प्रसाद मानकर। " धुरंधर जी के मेरे घर से जाने के बाद भी मैं 2 दिन तक मॉरीशस की यादों में खोई रही । प्रवासी साहित्य पत्रिका के संपादक राकेश पांडे ने मॉरीशस के हमारे संस्मरण की किताब भी प्रकाशित की थी जिसे पाठकों का काफी अच्छा प्रतिसाद मिला था।

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साहित्य अकादमी ने अनुदान देने के लिए 40 पांडुलिपियां चयन की थीं। जया केतकी, रेखा दुबे की किताब की भूमिका मुझे लिखनी थी। इसी समय आगरे से पूजा आहूजा कालरा और पूनम जाकिर भार्गव तथा अलका अग्रवाल की किताबों के लिए भी और अर्चना अनुपम, काँता रॉय, जया केतकी, अर्चना नायडू की किताबों के लिए भी मुझसे भूमिकाओं का आग्रह किया गया।

अभी मैं पूरी तरह से मसल्स पेन से छुटकारा नहीं पा सकी थी लेकिन फिर भी मैं व्यस्त थी।

विदिशा से रेखा दुबे अपनी पाण्डुलिपि और अपनी अमराई के आंधी में टूटे आम लेकर घर आई। उसकी कविताओं का करेक्शन, चयन आदि मैं दिन भर उसके साथ बैठी निपटाती रही। कविताएं मामूली थीं पर रेखा का जोश देखने लायक था। उसका पहला कहानी संग्रह था । कहने लगी "संतोष दीदी प्रकाशक भी आप ही बता दीजिए न जो 1 महीने के अंदर किताब छाप दें। "

मैंने माया मृग जी से बात की तो वे सहर्ष तैयार हो गए। मायामृग का बोधी प्रकाशन है और वे प्रकाशन के काम में बेहद ईमानदार और दिए हुए समय में काम निपटाने वाले प्रकाशक हैं।

सोचती हूं दर्द में भी और शरीर की अशक्तता में भी मैं लेखन से कभी पीछे क्यों नहीं हटती। मुझे लगता है यह संसार बल्कि पूरा ब्रह्मांड मुझ में न जाने कहां तक फैला है। इसी फैलाव में खुद को खोजती रहती हूं । लगता है सारे मौसम अपनी खुशबू और हवाओं के संग मुझ से होकर गुजर रहे हैं । ओले, बारिश, लू, ठिठुराती, झुलसाती, भिगोती मुझ में बार-बार बरस जाती है। ऋतुएं मौसम के उपहारों के रस, रंग गंध में हर क्षण महसूस करती हूं। मुझ में विस्तार पाते हुए जिंदगी कभी रुकी रुकी सी लगती है। कभी लुढ़कते पहियों पर सवार।

मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के पावस व्याख्यानमाला का रजत जयंती समारोह 27, 28 और 29 जुलाई को आयोजित किया जा रहा है । बड़ी भूमिका मिली है मुझे। 28 जुलाई के प्रथम सत्र का संचालन । विषय मानववाद या चराचर वाद। मंच पर होंगे रमेश चंद्र शाह, अंबिका दत्त शर्मा और केएन गोविंदाचार्य । भोपाल के सबसे बड़े साहित्यिक समारोह में मैं अपनी भूमिका को लेकर बहुत खुश थी। मध्य प्रदेश राष्ट्रीय प्रचार समिति के मंत्री संचालक हमारे दादा यानी वयोवृद्ध कैलाश चंद्र पंत जी के मुझ पर भरोसे को मुझे सर्वश्रेष्ठ साबित करना था । मैं उमंग और उत्साह में थी। तभी पंत दादा ने बताया कि 29 जुलाई को बंगाल के राज्यपाल महामना श्री केशरीनाथ त्रिपाठी तुम्हें सम्मानित भी करेंगे।

जिस जिस ने सुना बधाई दी। बधाईयों का तांता लग गया । समारोह संबंधी मीटिंग में मुझे भी शामिल किया गया। अक्सर ऐसा होता है। बहुत सारी खुशियां एक साथ मिल जाती हैं या बहुत सारे दुख।

दुख इस बात का कि अभी 28 जुलाई का दिन आया भी नहीं और 20 जुलाई 2018 को मेरे प्रिय गीतकार गोपालदास नीरज का निधन हो गया।

वहीं पर ढूंढना नीरज को तुम जहां वालों

जहां भी दर्द की बस्ती कोई नजर आये।

बेहद शॉकिंग न्यूज़ थी। जो खुद में कारवां था वह गुजर गया। याद आई मुंबई । मुंबई का पाटकर हॉल जहां मुंबई की साहित्यिक संस्था परिवार द्वारा उन्हें पुरस्कार दिया जा रहा था। हमेशा की तरह रात 9:00 बजे कार्यक्रम शुरू हुआ। लेकिन हमेशा की तरह 12:00 बजे खत्म नहीं हुआ बल्कि रात 2:00 बजे तक चलता रहा। सभी श्रोता जोर-जोर से आवाज लगा रहे थे।

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे। नीरज जी ने श्रोताओं की फरमाइश पर कई गीत सुनाए । कार्यक्रम की समाप्ति पर मैंने उनके नजदीक जाकर कहा कि “अब मैं भी जबलपुर से मुंबई शिफ्ट हो गई हूं। “ वे बहुत खुश हुए। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा

“ अब हम कवि सम्मेलनों में मिलते रहेंगे। “लेकिन नीरज जी जैसे ही बीमार पड़े लगने लगा जैसे देश से कवि सम्मेलन ही खत्म हो गए। नीरज जी के देहावसान ने कहां के कहां पहुंचा दिया। कई बार अतीत सुंदर यादों को दोहराता है या फिर बेजा घटनाएं दिमाग पर हावी हो जाती हैं ।

बहरहाल अब खबर प्यारी सी थी। स्वाति तिवारी ने मीडिया वाला पोर्टल शुरू किया जो सभी विधाओं में रचनाएं आमंत्रित कर ऑनलाइन पाठकों तक पहुंचाता है । मेरा यात्रा संस्मरण भी मीडिया वाला कॉलम में प्रकाशित हुआ। लिंक खोलकर देखा तो मुग्ध हो गई । बहुत खूबसूरत तरीके से प्रकाशित हुआ था संस्मरण। फेसबुक पर भी स्वाति तिवारी ने शेयर किया था। ढेरों लाइक्स और कमेंट्स मिले थे।

पावस व्याख्यानमाला भोपाल के लिए एक उत्सव जैसा है । मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से सभी भोपाल वासी साहित्यकारों से आर्थिक मदद लेकर यह तीन दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। मेरे पास कई मित्रों के फोन आए हम भी आ रहे हैं। सम्मेलन के बाद आपके घर कुछ समय बिताना चाहते है। चित्रा मुद्गल दी ने फोन पर न आने की असमर्थता प्रगट की

"नहीं आ पाऊंगी संतोष, स्लिप डिस्क का जानलेवा दर्द है। पर तुम तीनों दिन अटेंड करना। पंत जी सुबह नाश्ते में इसरार कर करके सबको गरम जलेबी पोहे खिलाते हैं। "

बहुत शानदार आयोजन था। 28 जुलाई का मेरा संचालन भी सभी को बहुत पसंद आया । सुखद अनुभूति थी मेरे लिए । मंच पर मेरी बाजू वाली कुर्सी पर बैठे केएन गोविंदाचार्य जी बोले

"भोपाल के लेखक न केवल ध्यान से सुनते हैं बल्कि लिखते भी जाते हैं। " भोपाल की साहित्यिक गंभीरता ने मुझे भी प्रभावित किया था।

29 जुलाई बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी द्वारा मुझे सम्मानित किया गया । प्रतीक चिन्ह शॉल और पुष्प गुच्छ से । इससे पहले महाराष्ट्र के गवर्नर, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड के गवर्नर भी मुझे सम्मानित कर चुके थे।

मसल्स पेन रह-रहकर उठता रहता है। कभी इतना की पेन किलर भी असर नहीं करती है । हालांकि मैंने अपने एकाकीपन से समझौता कर लिया है पर हेमंत का जाना....... बड़ी निर्दयता से एकाकीपन के अंधेरे ने मुझे दबोचा है । वह मेरे जीवन पथ पर दीप की तरह जगमगा रहा था । सब तरफ हलचल ही हलचल थी । अब एकांत की पीड़ा है। यही तो मेरी त्रासदी है....... बस, अपनी मन की सत्ता में सिमट जाना । आज ही तो है 5 अगस्त, हेमंत की पुण्यतिथि । आज ही के दिन तो हुआ था हादसा। जब दोनों शाम मिलने के सुरमई, सुनहले रंग रो पड़े थे। रो पड़ा था थमा हुआ वक्त। मेरा जीवन अंधेरों में तब्दील हो चुका था। 17 साल पहले अपनी 23 की उम्र की हकीकत लिख हेमंत 23 वर्ष की उम्र में अनंत में समा गया था।

आज भी वह दिन किर्चों सा चुभा है मेरे अंतस में।

उसने लिखा था

बहुत खतरनाक है/ 23 साल का होना/तमाम लपटों की /संजीदा रोशनी/ लपेट लेती है/ इस उम्र की तल्ख हकीकत /और चढ़ा दी जाती है/ फांसी पर/ डर कर उसकी आंच से।

हेमंत की यह कविता मानो उसके इस उम्र में चले जाने की दस्तक थी।

औरंगाबाद से हफ्ते भर के लिए प्रमिला आ गई थी। हम दोनों बहनों के बीच एक ही पुत्र हेमंत। हम डबडबाई आंखों से उसे याद करते रहे। बेंगलुरु, मुंबई, दिल्ली से ढेरों फोन....

फेसबुक पर हेमंत की पुण्यतिथि वाली पोस्ट पर ढेरों कमेंट्स, लाइक...... जानती हूं किसी के भी लिए हेमंत को भुला पाना कठिन है। वह शख्सियत ही ऐसी थी।

जब तक प्रमिला भोपाल में रही हम खूब बिजी रहे। लघुकथा शोध केंद्र में उसके लिए विशेष गोष्ठी का आयोजन किया गया। संचालन मेरा।

कहते हैं भोपाल में 90% साहित्यकार हैं बाकी 10% अन्य। आए दिन गोष्ठियां, लोकार्पण, नाटक, चित्र प्रदर्शनी, संगीत, नृत्य, साहित्य से जुड़े कितने आयाम। अब धीरे-धीरे भोपाल मुझे पसंद करने लगा है।

वर्जिन साहित्यपीठ के ललित कुमार मिश्र जी ने साझा काव्य संकलन संपादित करने के लिए मुझ से अनुरोध किया । मेरी शर्त थी कि कवियों और कविताओं का चयन मेरा होगा । मैं सिर्फ अपने नाम पर संपादक का ठप्पा नहीं चाहती थी। उन्हें मंजूर था। मैंने चुनकर 16 कवियों से उनकी दस, दस कविताएं मंगवाई । जो नहीं पसंद आई उनकी जगह दूसरी मंगवाई । पूरी किताब मैंने खुद कंपोज करके प्रूफ पढ़कर कवर डिजाइन डिसाइड करके उन्हें भेजी । किताब का नाम चिंगारी रखा। एक महीने बाद किताब ऐमेज़ॉन, गूगल, किंडल पर थी। अच्छे प्लेटफॉर्म मिले थे किताब को । ऐमेज़ॉन में इसकी कीमत ₹199 थी। जबकि पेपरबैक संस्करण ₹499 का। यही मेरा मतभेद हुआ उनसे। बहुत ज्यादा है कीमत। शिपिंग चार्जेस मिलाकर तो 600 तक की पड़ेगी। मिश्र जी का कहना था कि आप पेज भी तो देखिए, 380 पेज की है किताब। बहरहाल पोथी प्रकाशन ने पेपर बैक छापा । मेरी 30% रॉयल्टी तय हुई। किताब में प्रकाशित कवियों को भी 15% रायल्टी मिलेगी। किताब बहुत चर्चित हुई। अब मेरे हाथ में संपादन के लिए संस्मरण का साझा संकलन है।

हिन्दी भवन में वर्षा ऋतु को समर्पित वर्षा मंगल कार्यक्रम में मेरा कविता पाठ हुआ। कविता सुनाकर जब मैं मंच से उतर रही थी तो जहीर कुरैशी जी ने कहा "गजब कविताएँ आप तो गद्य लेखन छोड़कर सारा समय बस कविता को दो । बेहतरीन कविताएँ हैं आपकी। "

जहीर कुरैशी भी ग्वालियर छोड़कर अब भोपाल शिफ्ट हो गए हैं। हमारी जान पहचान मित्रता ग्वालियर से है। जहीर कुरैशी जी की बात पर मैं कई दिन मंथन करती रही । वे वरिष्ठ शायर हैं । तो क्या मैं सच में कविता में उतर जाऊं । कविताएं तो बचपन से ही छिटपुट लिखती रही हूं। पर छपने के लिए कभी वैसा प्रयास नहीं किया। जैसा करना चाहिए। इक्का-दुक्का छपती रही। नहीं जानती थी कि मुझ में मेरे ही संस्करण छिपे थे । अब वे उजागर हो रहे हैं । दिखने लगे हैं । दीखते हैं तो मुझी पर फिसल गए वक्त का आरोप लगा देते हैं।

और जब मैं इन संस्करणों को, मूल्यवान संभावनाओं को पुन: तलाशती हूं तो खुद को अपने नजदीक पाती हूं और ऐसा अक्सर होता है।

तो मैं अपनी कविताओं को इकट्ठा करने में जुट गई। सिलसिलेवार कभी लिखा नहीं । कभी डायरी में लिख लेती, कभी पन्नों में । जिन्हें मैं तहा कर इधर-उधर दबा देती और आजकल तो मोबाइल के नोटपैड पर भी लिखने लगी हूँ। इकट्ठी की तो देखा करीब डेढ़ सौ कविताएँ हैं। इनमें से कुछ बेकार लगीं। कुछ को री राइट किया, काट छांट, अपनी समझ से सुधार भी। एक सौ पांच कविताएँ ठीक लगीं। सोचा इन कविताओं पर किसी कवि से ब्लर्ब न लिखा कर कथाकार, पत्रकार से लिखवाया जाए। हरीश पाठक इस काम के लिए सहर्ष मान गए। मैंने उन्हें कुछ कविताएँ भेज दीं। किताबवाले पब्लीकेशन को पाण्डुलिपि भेज दी। किताब "तुमसे मिलकर "नाम से प्रकाशित होगी और वर्ष 2019 के विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में इसका लोकार्पण होगा । हरीश जी ने भी ब्लर्ब भेज दिया ।

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