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मेरे घर आना ज़िंदगी - 16

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(16)

किसी से मिलना बातें करना, बातें करना अच्छा लगता है। लेकिन ज़िंदगी इतनी आसान कहाँ! वह तो वीराने में फैला हुआ ऐसा रेगिस्तान है जहाँ रेत के सारे टीले एक से दिखते हैं। और किस्मत में भी बंजारापन । जब देखो बिच्छू का डेरा पीठ पर। योगेश जोशी को घर बेचना था। इत्तफाक से उसी बिल्डिंग की पहली मंजिल पर मुझे टेरेस फ्लैट मिल गया। दो बड़े-बड़े टेरेस एक हॉल से लगा हुआ दूसरा रसोईघर से। फ्लैट मुझे पसंद आया।

विभिन्न शहरों से मुम्बई आने वाले मुझसे ज़रूर संपर्क करते, मिलने की इच्छा प्रगट करते। मैं उनके सम्मान में घर में गोष्ठी भी आयोजित करती और अपनी सखी सहेलियों को भी बुलाती । सभी कहते "संतोष, तुम्हारा घर तो भैरव बाबा का मंदिर है । जैसे बनारस जाओ तो बाबा विश्वनाथ के दर्शन तभी संपूर्ण कहलाते हैं जब भैरो बाबा के भी दर्शन कर लो। इसी तरह जो भी मुम्बई आता है वह जब तक संतोष के घर नहीं आ जाता तब तक उसकी मुम्बई यात्रा पूर्ण नहीं होती। "

हरनोट जी पत्नी सहित आए। श्रीहरि अक्षत आए। विकेश निझावन जी बेटे अरुण के साथ आए। उन्हें सारथी साहित्य सम्मान दिया जाना था लेकिन उनके साथ पुरस्कार की आयोजक लता सिन्हा और सुशील योगी ने धोखा किया । धोखा उन दोनों ने मेरे साथ भी किया । विकेश जी को रुकवाने के लिए उन दोनों ने अंधेरी स्थित सुभाष होटल में एक कमरा मेरे नाम से बुक करा लिया। सुभाष होटल का मालिक मुझे इस तरह पहचानता था कि मैं हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कार समारोह में आमंत्रित किए गए अतिथियों को उसी में रुकवाती थी। विकेश जी 2 दिन होटल में रुके। जिसका किराया खाना पीना सब मुझे भरना पड़ा । न जाने लता सिन्हा और सुशील योगी ने ऐसा क्यों किया।

विकेश जी बेहद अपसेट थे । मैंने उनका कहानी पाठ अपने घर में रखा और मुंबई घूमने के लिए उन्हें टैक्सी अरेंज करके दी ।

इस घटना का मेरे ऊपर गहरा असर हुआ था। क्योंकि विकेश जी मेरे ही कहने पर पुरस्कार लेने को राजी हुए थे। अब उन्हें खाली हाथ अंबाला लौटना पड़ रहा था। एक साहित्यकार के लिए इससे अपमानजनक स्थिति और क्या हो सकती है। मैं लता सिन्हा और सुशील योगी को कभी माफ नहीं करूंगी।

मेरा चौथा कथा संग्रह "आसमानी आंखों का मौसम" नमन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित होकर आ गया था। मुंबई में उसका लोकार्पण रविंद्र कात्यायन जी के कॉलेज से प्रेम भारद्वाज के हाथों हुआ । प्रकाशक नितिन गर्ग भी दिल्ली से आए । इस बात से जयप्रकाश मानस बहुत नाराज हुए कि आप इतनी सीनियर राइटर और अपने से जूनियर लेखक प्रेम भारद्वाज से लोकार्पण करा रही हैं। उन्होंने सुमीता से भी यह बात कही। वे सभी लेखकों की पुस्तकों के प्रकाशन, लोकार्पण, पुरस्कार, जन्मदिन और दिवंगत होने की खबरें फेसबुक पर लगाया करते हैं । लेकिन मेरी पुस्तक के लोकार्पण की खबर उन्होंने नहीं लगाई और मुझे फेसबुक पर ब्लॉक भी कर दिया । अब प्रेम भारद्वाज इस दुनिया में नहीं हैं। कितना कुछ उनसे सम्बंधित याद आ रहा है।

शुरुआत के वर्षों में दिल्ली से गुजरते हुए कुछ दिन रुकते हुए बहुत चाह कर भी प्रेम भारद्वाज से मिलना नहीं हो पाया । हालांकि पाखी में उन्होंने मेरा यात्रा संस्मरण और एक कहानी भी छापी।

फिर एक दिन अचानक रात 9:00 बजे उनका फोन आया

" कैसे सह पाईं इतनी पीड़ा, हादसे। कैसे चेहरे पर मुस्कुराहट बनाए रखती हो । "उस दिन मैंने जाना कि यह व्यक्ति अंदर से कितना खोखला निराश है । पत्नी की असमय मृत्यु, आर्थिक संकट के रहते दिल्ली जैसे महानगर में जीवन यापन करना कोई मामूली बात नहीं। फिर तो रोज रात 9:00 बजे से 11:00 बजे तक हम फोन पर बतियाते । पाखी के जुनून को लेकर वे इस दुरावस्था में भी रात दिन उसे निकालते रहने की जहमत उठाए रखते । बातें करते करते कभी गैस पर दूध रख कर भूल जाते । पूरा दूध जल जाता। 11:00 बजे फोन रखते ही तुरंत फिर कॉल करते।

" दूध जल गया पूरा । पैंदे से चिपक गया । दूध पीकर ही पाखी के प्रूफ पढने वाला था। "

“क्यों आज से शराब को अलविदा कह दिया क्या, ”हम देर तक हँसते रहे थे।

फिर अचानक पाखी से उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अपनी स्वतंत्र पत्रिका भवन्ती निकालने की योजना पर काम करना शुरू किया।

साल भर से वे कैंसर से अहमदाबाद के अस्पताल में जूझ रहे थे । पता नहीं ठीक हुआ कि नहीं। लेकिन फिर दिल्ली आकर भवंति पत्रिका का प्रकाशन, लोकार्पण भी किया और दूसरे अंक की तैयारियों में जुट गए। मैंने कहा "अंक तो भिजवाईए। "

बोले "भोपाल आने का प्लान कर रहा हूं । लेता आऊंगा । लेकिन फिर ब्रेन हेमरेज, कोमा में चले जाना और कोमा में ही दुनिया को अलविदा कहना। उन्होंने जीना चाहा ही नहीं। शराब ने, सिगरेट ने उन्हें पीलिया निचोड़ लिया। वे उस कड़ी के आखिरी व्यक्ति थे जो आर्थिक संकट और सामाजिक बहिष्कार के बावजूद कभी अपने पद से नहीं डिगे।

कांदिवली में रहते हुए बाहर के सभी लेखकों ने मुझे बहुत अधिक रिस्पांस दिया । दिल्ली से हरिसुमन बिष्ट, सिलीगुड़ी से रंजना श्रीवास्तव, भोपाल से स्वाति तिवारी, बनारस से श्री हरि वाणी, पटना से मीरा श्रीवास्तव अनुराधा सिंह मेरे घर आई । अहमदाबाद से रजनी मोरवाल आई जिन्होंने मेरा साक्षात्कार भी लिया जिसे पंकज त्रिवेदी ने अपनी पत्रिका विश्वगाथा में छापा। मराठी की नंदिनी आत्मसिद्धा ने साक्षात्कार लिया जो मराठी की पत्रिका ललित में प्रकाशित हुआ।

23 मई को हेमंत के जन्मदिन पर सब घर में इकट्ठा हुए । धीरेंद्र अस्थाना, ललिता अस्थाना, खन्ना मुजफ्फरपुरी, सूरज प्रकाश, अमर त्रिपाठी, महेश दुबे, कैलाश सेंगर, मुकेश गौतम, सुभाष काबरा और सुमीता सहित विश्व मैत्री मंच के सभी सदस्य।

वह शाम हेमंत की कविताओं से शुरू होकर कहानी पाठ, कविता पाठ, व्यंग्य, गीत ग़ज़ल पर समाप्त हुई। उस फ्लैट में वह आखिरी गोष्ठी थी। मुंबई में मैं और अधिक नहीं टिक पाई। हालांकि लेखकों के जमावड़े से घर रौनक लबरेज रहता पर इस सिलसिले को जल्द टूट जाना था।

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मुंबई की बारिश जितनी खूबसूरत होती है उतनी ही डराती भी है। महानगर को पानी पानी होते देर नहीं लगती। मेरा घर भी पानी की गिरफ्त में था । सोचा था पहली मंजिल पर फ्लैट है तो घर में पानी नहीं भरेगा पर पहली बार एहसास हुआ कि पानी केवल जमीनी सतह से नहीं भरता । घनघोर बारिश में नालियों के पाइप में से भी पानी उछल उछल कर बाहर आता है। पानी ड्राइंग रूम, बैडरूम, रसोईघर हर जगह एक एक फुट भर गया। मेरे सारे महत्वपूर्ण कैसेट, सीडी जिनमें मेरी उपलब्धियाँ दर्ज थीं पानी में भीग गए। मैं डरी सहमी पलंग पर बैठी रही और मकान मालिक को लगातार फोन कर घर की स्थिति बताती रही। वह ठाणे में रहता था। इतनी बारिश में उसका कांदीवली आना मुश्किल था। किसी तरह कुमुद जोशी के दिए नंबर पर फोन करके प्लंबर बुलाया। पानी दोपहर 2 बजे से भरना शुरू हो गया था । प्लंबर शाम को 6 बजे बारिश थमने पर आया।

आते ही "5 हजार लेगा, 3 पाइप की सफाई करनी पड़ेगी। सीढ़ी लेकर आएगा । तभी काम हो पाएगा । घर पूरा साफ करके फर्श सुखाकर देगा। काम बढ़िया अपुन का। "

मेरे सामने सिवा हाँ कहने के कोई चारा न था। रात 8 बजे तक उसने उम्दा तरीके से काम किया। धुल पुछ कर फर्श चमक रहा था। 8 बजे पलंग से उतर कर मैंने चाय बनाई और प्रमिला को फोन लगाया ।

"बहुत मुश्किल है इस घर में रहना। "

"छोड़ दो मुंबई औरंगाबाद आ जाओ। हम साथ मिलकर रहेंगे। दिव्या को सरकारी मकान मिल गया है । रिन्यूशन कर के रहने लायक बनाना होगा। "

मेरी मुम्बई रहने की मानसिकता में काफी अरसे से बदलाव आ रहा था। एक तो साहित्यिक माहौल अब पहले जैसा रहा नहीं। मेरी सहेलियाँ जो उम्र में मुझसे छोटी थीं। फिल्मों में, धारावाहिकों में, हास्य के मंचों पर भाग्य आजमा रही थीं। कई वरिष्ठ साहित्यकार मुंबई से दिल्ली, भोपाल शिफ्ट हो गए थे फिर मैं अकेली रह कर कैसे जिंदगी जिऊंगी। बीमार पड़ी तो कौन साथ होगा। केयरटेकर रखना भी खतरनाक है। आजकल किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मकान किराया भी हर साल 10 परसेंट बढ़ जाता है। कोई आय का स्रोत नहीं। कैसे होगा ? आदि आदि। सहेलियों की ओर से उठे सवालों से मैं जूझती रही। इन सवालों को जी तो रही हूँ कितने सालों से। जब से रमेश गए 2007 से। आखिर 9 वर्ष बाद वे सवाल मुझे क्यों डरा रहे हैं। क्यों मेरी हिम्मत को पस्त कर रहे हैं। मैंने प्रमिला से कहा “ ठीक है। घर रिन्यूवेट करा लो। शिफ्ट हो जाती हूं औरंगाबाद । "

रिन्यूएशन के 75 हजार भेजकर मुक्ति महसूस की। उन सवालों से या बदलते हालातों से।

धीरे धीरे मुंबई के सभी साहित्यकारों तक मेरे मुम्बई छोड़ देने की बात पहुंची। धीरेंद्र अस्थाना ने मुझे लंच के लिए घर पर बुलाया। ललिता जी ने फोन पर कहा "आओ बात करना है जरूरी। "

मैं सुमीता के साथ जब धीरेंद्र अस्थाना के घर पहुंची तो सूरज प्रकाश वहाँ मौजूद थे । ललिता जी के रसोईघर में पहाड़ी विधि के आलू पक रहे थे। ककड़ी के रायते में हींग जीरे का बघार दिया जा रहा था। धीरेन्द्र जी सलाद काट रहे थे। छूटते ही ललिता जी बोलीं "क्यों छोड़ रही हो मुम्बई? फाइनेंशियल प्रॉब्लम है तो मीरा रोड में सस्ते किराए का मकान दिला देते हैं। महानगर सी सुविधाएं किसी शहर में नहीं। पछताओगी। "

मैं हँस पड़ी थी। “पछता लेने दीजिए, भटक लेने दीजिए । निश्चय ही जंगल की पगडंडी सड़क तक ला छोड़ेगी। “ मधु अरोड़ा के आने से बात को ब्रेक मिला । वे कोफ्ते और खीर बना कर लाई थीं। टेबल पर धीरेन्द्र जी की बोतल खुल गई। बीच में सलाद। सूरज प्रकाश और अस्थाना के आमने-सामने पैग और चर्चा का केंद्र मैं।

" अब इतने साल रहीं। उतार-चढ़ाव देखे जिंदगी के । नहीं छोड़ना चाहिए मुम्बई। "

" आपकी विदाई मुम्बई एक खुशखबरी से कर रही है। स्टोरी मिरर के अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान के लिए आप की कहानी शहीद खुर्शीद बी का चयन किया गया है। "सूरज प्रकाश ने बताया।

वे उन दिनों स्टोरी मिरर के सलाहकार मंडल में थे।

" वाह बधाई, बधाई । आधे लाख के पुरस्कार पर ट्रीट तो बनती है । "सभी कहने लगे ।

"दिलचस्प कहानी है इस चयन की। " सूरज प्रकाश ने बताया "आप की कहानी कश्मीर के आतंकवाद की है। कहानी में वर्णित घटनाओं की सच्चाई जानने के लिए दो पत्रकारों को कश्मीर भेजा गया। 10 दिन रह कर जब उन पत्रकारों ने वहां के हालात का कहानी से मिलता-जुलता हवाला दिया तब उस कहानी का चयन किया गया। "

"सचमुच रोमांचक...... तो आज हम इसे गाकर सेलिब्रेट करेंगे। "

सुमीता, मधु अरोड़ा, मैंने गीत गाए। धीरेन्द्र जी को मैंने सधी आवाज में पहली बार गाते सुना।

" पुकार लो ख्वाब बुन रही है रात बेकरार है। "

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स्टोरी मिरर से मिलने वाले पुरस्कार की बात धीरे-धीरे फैल रही थी। मुंबई की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा मेरे सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करने की अब दो वजह हो गईं । शिफ्टिंग और पुरस्कार। शिवानी साहित्य मंच ने मेरे सम्मान में रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किया। गीत, ग़ज़ल, लोकगीत, सोलो नाटक, माहिया, तरह-तरह के पकवान वाला डिनर। आत्मीयता भरी वह शाम यादों में बस गई।

शहीद खुर्शीद बी कथाबिम्ब में अरविंद जी ने छापी। ढेरों पत्र, फोन । क्या यह सच है कि वहाँ मुस्लिम परिवार भी आतंक की चपेट में है? क्या आतंकवादी वहाँ बसे मुसलमानों पर भी अत्याचार करते हैं ?कहीं यह आपकी कोरी कल्पना तो नहीं? जैसे सवालों से मुझे दो चार होना पड़ा। कहानी की लोकप्रियता ने खूब पाठक बटोरे।

जून के प्रथम सप्ताह में नासिक की साहित्य सरिता मंच संस्था ने सुनो कहानी के अंतर्गत आयोजन कर मुझे इस कहानी के पाठ के लिए बुलाया। पिन ड्रॉप साइलेंस सभागार में कहानी पढ़ती मेरी आवाज गूंज रही थी। कहानी समाप्ति के पश्चात चर्चा विमर्श का दौर शुरू हुआ। श्रोताओं में सलीम अतहर ने बड़े तैश में पूछा

"जब दहशत गर्द रज्जाक मियां की बेगम खुर्शीद बी को उठाकर ले जा रहे थे तो रज्जाक मियां चुप क्यों रहे? विरोध क्यों नहीं किया? कैसे देखते रहे इतना जुल्म ?

ऐसी प्रतिक्रिया ही मेरी कहानी की सफलता थी। यही जोश तो जगाना था कि कुछ मत सहो। क्यों सहते हो?

नासिक से लौटी तो धीरे-धीरे सामान छांटने लगी। महंगा फर्नीचर औरंगाबाद जाएगा। कुछ अनुपयोगी सामान का विज्ञापन ओलेक्स में लगा दिया। गैस के 2 सिलेंडर में से एक सिलेंडर और चूल्हा मेरे पीएचडी के स्टूडेंट ने मांग लिया। दूसरा सिलेंडर धीरेंद्र अस्थाना को अपने बेटे के लिए चाहिए था। फ्रिज शमा को चाहिए था। 40 सालों की मेरी गृहस्थी यूँ रफा-दफा हो रही थी। लेकिन मन में मलाल सिर्फ इस बात का था कि हेमंत का बहुत कुछ यहीं छूट रहा था। मुंबई के चप्पे-चप्पे में पड़े उसके कदमों के निशां यहीं छूट रहे थे। यहीं उसकी रोज कॉलेज तक की दौड़, लोकल ट्रेन की आपाधापी, उसकी स्वाति, समुद्र के किनारे । सब यहीं छूट रहे थे ।

शाम को थक कर चूर मैं निर्निमेष दूर चमकते सुनहरे पगोडा और अस्त होते सूर्य को देखती । मुझे लगता मुझे खुद को संभालना होगा । न जाने कितना जीना है, न जाने कब तक त्रासद समय साथ रहेगा।

सुबह जब जयपुर से उमा जर्नलिस्ट का फोन आया" आपका यात्रा वृत्तान्त “श्रीलंका जहाँ रावण मुखौटों में जिंदा है” डेली न्यूज़ की रविवारीय पत्रिका में इसी रविवार को प्रकाशित हो रहा है। " मैंने कहा "पत्रिका औरंगाबाद भेजना। पता व्हाट्सएप कर दूंगी । "

उमा ताज्जुब से भर उठी।

"आप मुंबई छोड़ रही हैं । मगर क्यों?"
मुझे पता है अब काफी समय तक मुझे इस सवाल का सामना करना पड़ेगा। कुछ को बुरा लग रहा था मेरा जाना। कुछ मुझे चेता रहे थे जैसे तेजेंद्र शर्मा "जा तो रही हो। मगर वहाँ तुम्हें अपना आसमान नहीं मिलेगा। "

बाद में मुझे तेजेंद्र शर्मा की बात सही लगी थी। लेकिन फिलहाल वक्त मजबूर था।

ई कल्पना की संपादक मुक्ता सिंह जौकी ने कब से मेरे साक्षात्कार के प्रश्न मेल किए थे । बहरहाल साक्षात्कार का अधूरा काम पूरा कर मैंने चैन की साँस ली । मुक्ता जी ने आनन-फानन साक्षात्कार वॉल्यूम 1अंक 5 में प्रकाशित कर मुझे पारिश्रमिक भी भेज दिया।

छत्तीसगढ़ मित्र के संपादक सुधीर शर्मा के न्यौते पर मैं 8 जून को पचमढ़ी रवाना हो गई। न्यौता छत्तीसगढ़ मित्र द्वारा आयोजित साहित्य महोत्सव का था। लेखकों का काफी बड़ा वर्ग इस महोत्सव में शामिल हुआ था । सद्भावना दर्पण पत्रिका के संपादक मेरे मित्र गिरीश पंकज भी थे। कविता सत्र की अध्यक्षता मैंने की । दूसरे दिन हम पचमढ़ी दर्शन को निकले । पचमढ़ी बेहद खूबसूरत पर्वतीय शहर के रूप में मेरी यादों में बसा था । जब मैं बिरला पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थी और नेचर क्लब का टूर लेकर 15 वर्ष पहले यहाँ आई थी, वो खूबसूरत छतनारे पेड़, ढेरों झरने, गुफाएं, घाटियां, शिवजी के पराक्रम को दर्शाते मंदिर, पांडव गुफाओं ने तब चमत्कृत किया था। अब पर्यावरण की चिंताजनक स्थिति थी। पहाड़ों को काटकर विकास के कार्यों ने उसकी सुंदरता छीन ली है।

पचमढ़ी से लौटी तो कमल चोपड़ा के संपादन में दिल्ली से निकलने वाली लघुकथा की पत्रिका संरचना का मई अंक इंतजार करता मिला। उसमें मेरी लघुकथाएं फैसला और दावेदार प्रकाशित हुई थीं। कुछ समय बाद एन एफ डी सी से सूचना मिली कि फैसला लघुकथा को फिल्मांकन के लिए चुना है । मैंने खुश होकर रतन जी को फोन लगाया । उनके द्वारा ही फैसला का चयन हुआ था । बाद में फैसला का फिल्मांकन रतन जी की मृत्यु के कारण रुक गया । बात रफा-दफा हो गई।

पिट्सबर्ग अमेरिका में अनुराग शर्मा जी सेतू नामक पत्रिका दो भाषाओं में निकालते हैं। मेरी कहानी "शहतूत पक गए हैं "सेतु में प्रकाशित हुई तो उसे ऑनलाइन अच्छा प्रतिसाद मिला । यह एक प्रेम कथा है जो मुंबई में पानी की समस्या के संग उभरकर विस्तार पाती है। मुंबई के उपनगर पानी के लिए नगर निगम के टैंकरों पर डिपेंड करते हैं। यही वजह है कि मुंबई में मेरी पानी उबालकर पीने की आदत विरार और मीरा रोड से जो पड़ी तो आज तक है।

मुझे स्टोरी मिरर द्वारा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार दिया जा रहा है यह खबर अखबारों की सुर्खियों में थी। किरण वार्ता के संपादक शैलेंद्र राकेश ने बधाई देते हुए सूचना दी कि "पत्रिका मिली क्या?उसमें आप की कहानी “एक और कारगिल” प्रकाशित की है। "

मेरे संग अक्सर यही होता है| पत्रिका बाद में मिलती है पाठकों के फोन पहले आने शुरू हो जाते हैं।

15 जुलाई 2016 को मुंबई के मनीबेन नानावटी महाविद्यालय के सभागार में शोध विद्यार्थियों, लेखकों, पत्रकारों के भारी संख्या में मौजूदगी के बीच मुझे स्टोरी मिरर का पुरस्कार अभिनेता राजेंद्र गुप्ता के हाथों प्रदान किया गया। प्रतीक चिन्ह के साथ खिलाड़ियों को दिए जाने वाले चैक की तरह बहुत बड़ा चैक जिसे एक तरफ से मैंने पकड़ा दूसरी तरफ से राजेंद्र गुप्ता जी ने । इस कार्यक्रम के संयोजक सूरज प्रकाश और डॉ रविंद्र कात्यायन थे। मैंने पुरस्कृत कहानी पढ़कर सुनाई। जिसे श्रोताओं का भरपूर प्रतिसाद मिला। रवीन्द्र कात्यायन संचालक भी थे । उन्होंने संचालन करते हुए मेरे औरंगाबाद शिफ्ट होने की सूचना दी और समारोह को मेरा विदाई समारोह बना दिया।

उस दिन मुंबई में मैंने अपनी अहमियत जानी । एहसास हुआ 40 साल मेरे जो यहाँ बीते व्यर्थ नहीं गए । मेरे साहित्यकार मित्र मेरी 40 वर्षों की उपलब्धि थी। मुम्बई मेरी अपनी थी। यहाँ मैंने अगर हादसे झेले हैं तो जिंदगी के बेहतरीन दिन भी गुजारे हैं। सन् 2011 से मैं मुम्बई पर किताब लिख रही हूँ "करवट बदलती सदी आमची मुंबई" पांचवा वर्ष भी अधिया गया पर किताब अभी अधूरी ही है।

करीब 6 महीने पहले डॉ रजिया जो चेन्नई में एसआरएम विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग प्रमुख हैं ने सूचना दी थी कि आप की कहानी "एक मुट्ठी आकाश " पर बीए के कोर्स के लिए विचार-विमर्श चल रहा है। वह दिन मुंबई का मेरा अंतिम दिन था जब सूचना मिली कि कहानी कोर्स में लगा दी गई है। मैं ऊहापोह में अजीब सी मन:स्थिति से गुजर रही थी । इधर इतनी एक्साइटिंग खबर कि मैं अब कोर्स में पढ़ाई जाऊंगी वह भी बी ए के और उधर 40 सालों का उजड़ता मेरा संसार। हमेशा के लिए छूटती मुम्बई, छूटता मेरा साहित्यिक परिवार ।

पैकर्स एंड मूवर्स वाले सामान पैक कर रहे थे। सुमीता आ गई थी, आशा सिंह अपने घर से खाना बना कर ले आई थी। 5 बजे शाम को सामान की लोडिंग खत्म हुई । सामान रवाना हुआ। मैं सूने घर में चक्कर लगाती रही। नौकरानी शमा को हिदायत देती" शमा देख कुछ छूट तो नहीं गया?"

उसकी आँखों में आँसू थे" छूट गया न आंटी। मैं छूट गई। " और वह सुबकने लगी । पड़ोसी योगेश जोशी उनकी पत्नी कुमुद विदा के समय गेट पर खडे हाथ हिलाते रहे ।

सुमीता, सुनील, आशा मुझे छोड़ने बस अड्डे तक आए। बस सुबह 6 बजे औरंगाबाद पहुंचा देगी । अपनी सीट पर बैठते मेरी आँखों के आगे सब कुछ ब्लेंक था । खाली, शून्य में समाता मुंबई का वह आखरी लम्हा। मैंने खिड़की के कांच से अंतिम बार तीनों को हाथ हिलाया और तुरंत पर्दा खींचकर घुटनों में मुंह छुपा लिया। हेमंत के बाद यह दूसरी बार उजड़ जाने का एहसास था। जिसने मुझे गहरे दबोच लिया ।

वह रात बहुत भारी थी।

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