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मेरे घर आना ज़िंदगी - 15

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(15)

जब राजस्थानी सेवा संघ की स्वर्ण जयंती भाईदास हॉल में मनाई जा रही थी तब माया गोविंद और गोविंद जी से चाय के दौरान पता चला कि वे माया गोविंद पर एक किताब तैयार कर रहे हैं । "सृजन के अनछुए प्रसंग" जिसमें माया जी से जुड़े साहित्यकारों, पत्रकारों और फिल्मी दुनिया के लोग संस्मरण लिख रहे हैं।

"आप भी लिखिए न"

"हाँ मैं जरूर लिखूंगी गोविंद जी। आखिर मैं माया जी की बिटिया हूँ।

(वे मुझे बिटिया कहकर संबोधित करती थीं ) मैं उनके व्यक्तित्व कृतित्व पर लिखूंगी। " इस पुस्तक के संपादक डॉ करुणाशंकर उपाध्याय हैं। माया गोविंद दी पर जितना लिखो कम है। एक महान हस्ती हैं वे। जिनकी जिंदगी की किताब सबके सामने खुली है। यह कि उन्होंने तीन शादियाँ की, गोविंद जी उनके तीसरे पति हैं। यह कि वे अब तक 350 फिल्में, टीवी सीरियल प्राइवेट एल्बम के लिए 800 गीत लिख चुकी हैं और गीतों से उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

इस किताब का खूब धूमधाम से लोकार्पण हुआ। इस वर्ष उन्होंने अपना जन्मदिन भी खूब धूमधाम से मनाया । हरे-भरे रिसॉर्ट में फिल्मी हस्तियों के बीच सागर त्रिपाठी के संचालन में गीत ग़ज़ल का कार्यक्रम रात 1:00 बजे तक चला। 2:30 बजे माया दी ने बोधिसत्व से कहा कि वे मुझे घर तक पहुंचा दें । वे मेरे घर से 5 मिनट की दूरी पर रहते थे।

बोधिसत्त्व को जाने क्या हुआ । पहला हेमंत स्मृति कविता सम्मान उन्हें ही दिया गया था। तब उन्होंने पुरस्कार राशि संस्था को मंच पर ही डिक्लेअर करते हुए डोनेट कर दी थी। अब कहते फिर रहे हैं कि संस्था के दबाव में आकर डोनेट की। जहर उगल रहे हैं मेरे और प्रमिला के प्रति कि ये दोनों बहनें याचना की पात्र हैं ।

धन्य हैं बोधिसत्व जी, दोगलापन तो कोई आपसे सीखे । आप हेमंत फाउंडेशन से पुरस्कृत कवियों में एक धब्बा हैं ।

ताशकंद में आयोजित 5 वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्य सम्मेलन में मुझे सृजनगाथा पत्रकार सम्मान के लिए प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान छत्तीसगढ़ ने आमंत्रित किया। 4 जून 2012 को लगभग 70 भारतीय लेखकों के साथ मैं दिल्ली से ताशकंद रवाना हुई। कार्यक्रम बहुत ही सफलतम कहा जाएगा । मुझे बुद्धिनाथ मिश्र के हाथों पुरस्कार प्रदान किया गया। यह मुझे मिले पुरस्कारों में तीसरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मान था। ताशकंद भ्रमण के दौरान शास्त्री जी से जुड़ी यादों ने भाव विभोर कर दिया। इसलिए नहीं कि वह मेरे मामा ससुर थे बल्कि इसलिए कि उनका यहाँ आश्चर्यजनक परिस्थितियों में देहावसान हुआ था और हमने अपना बेहद प्यारा नेता खो दिया था। समरकंद यात्रा के दौरान बुलेट ट्रेन की बोगी में बुद्धिनाथ मिश्र, देवमणि पांडे, जयप्रकाश मानस आदि की कविताएं सुनते हुए समय का पता ही नहीं चला था। सम्मेलन के दौरान मुझे महाराष्ट्र का अध्यक्ष घोषित किया गया । अगला सम्मेलन कंबोडिया में होना तय हुआ।

अब सोचती हूँ तो लगता है परिवार को खोकर तो मेरी जिंदगी पहियों पर सवार हो गई। कभी नाशिक, कभी पूना, कभी भंडारदरा, कभी घाटघर, कभी इंदौर, कभी पटना, तो कभी रायपुर। हर जगह मेरे लिए कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं । सम्मान पुरस्कारों की लिस्ट में इजाफा हो रहा है और अखबारों में सुर्खियों में हूं । मेरे साक्षात्कार, लोकल न्यूज़ चैनलों में बाइट्स कुल मिलाकर बेहद व्यस्त जिंदगी हो गई । समय ऐसा गुजरा जैसे किताब के पन्ने। हर पन्ना आश्चर्य, सफलता चर्चा में बना रहने वाला। साथ ही मेरी पीड़ाओं का खुलासा करने वाला। यही दास्तान पेज दर पेज।

और मैं दिशाहीन हो समय की सरिता में बेकाबू होकर चप्पू चला रही हूँ। किनारा दिखाई नहीं देता। न जाने कब ख़तम होगी यह किताब।

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मुंबई में बारिश का मौसम चल रहा था। इंदौर से कृष्णा अग्निहोत्री जी की घबराई हुई आवाज

" अरे संतोष, नातिन आज ही 6 महीने की ट्रेनिंग के लिए मुंबई पहुंची है । बारिश से घबराकर एयरपोर्ट पर ही बैठी है । सुधा अरोड़ा ने अपने घर रुकने को हाँ कहा था पर वह तो फोन ही नहीं उठा रहीं। तुम कुछ करो। "

"कृष्णा दी, उनको मेरा फोन नंबर दे दीजिए। बात कर लेती हूं । "

थोड़ी देर बाद नातिन का फोन आया। मैंने उसे अपने घर का रास्ता समझाया और कहा तुम मेरे घर रह सकती हो। वह मेरे घर एक हफ्ते रही। फिर उसे फ्लैट मिल गया। पेइंग गेस्ट वाला। अंधेरी में। कृष्णा जी का फोन आया "संतोष तुमने हमारी बहुत मदद की। ऐसे में जब सभी ने उसे अपने घर रुकने को मना कर दिया था तुमने साथ दिया । तुम्हारा एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी ।

कृष्णा दी साहित्य जगत से असंतुष्ट हैं। वे सोचती हैं कि साहित्य में उनका मूल्यांकन नहीं हुआ और उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया है।

इंदौर लेखिका संघ ने मुझे सम्मानित करने और सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंदौर बुलाया। प्रेम कुमारी नाहटा ने मेरे रुकने का प्रबंध होटल में किया था पर कृष्णा दी नहीं मानी। मेरे ही घर रुकना है तुम्हें ।

प्रेम कुमारी नाहटा की पुस्तक कोठरी से बाहर की भूमिका मैंने लिखी थी। उसका भी लोकार्पण होना था। दूसरे दिन इंदौर लेखक संघ के कार्यक्रम में मेरा एकल कविता पाठ रखा गया। दो दिन बेहद व्यस्तता से गुजरे। कृष्णा जी के साथ जैसे ही फुर्सत होकर बैठी थी डॉक्टर सतीश दुबे (लघुकथाकार) के घर से कृष्णा दी के पास फोन आया। "यह क्या बात हुई । संतोष पहले हमारी है फिर आपकी। कल उसे हर हाल में मेरे घर लेकर आइए । "

मैं नि:शब्द, इतनी आत्मीयता, दुलार। सतीश दुबे जी न चल पाते हैं। न लिख पाते हैं। हाथ-पैर से लाचार हैं। व्हीलचेयर पर रहते हैं फिर भी उनकी किताबें प्रकाशित होती हैं। उनकी किताब डेराबस्ती का सफरनामा की उनके खास अनुरोध पर कथाबिंब के लिए मैंने समीक्षा लिखी थी। मुझे बहुत मानते हैं । इतना भव्य स्वागत किया उन्होंने मेरा । फूलों की माला, शॉल, नारियल, अपनी किताबों का सैट दे कर । फिर मेरी कहानी का पाठ हुआ। और उस पर उपस्थित लेखकों द्वारा प्रश्न भी पूछे गए । मैंने "शहतूत पक गए" कहानी का पाठ किया था। जब यह कहानी कथाबिंब में छपी थी तो नंदकिशोर नौटियाल जी ने हिंदुस्तानी प्रचार सभा के मंच से कहा था कि

" यह सर्वश्रेष्ठ प्रेम कथा है। राजम जी आप अरविंद जी (संपादक कथाबिंब) को इस विषय में पत्र लिखिए और यहाँ बैठे सभी लोगों से उस पर हस्ताक्षर करवाएं। "

हस्ताक्षरों वाला वह पत्र मेरी कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

सतीश दुबे जी अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन निर्जीव हाथों की लिखी उनकी ज्वलंत पुस्तकें हमारे बीच हैं ।

मुंबई लौटते ही कृष्णा दी का फोन "अरे तुम जिस तखत पर सोती थीं उसके नीचे अजगर का बिल था । वह तो मजे से बिल से बाहर आकर तखत के नीचे सोता हुआ मिला। "

मुझे तो लगता है ऊपर तुम और नीचे अजगर सोता रहा होगा । मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए । दो-तीन दिन तक सपने में भी अजगर दिखता रहा लेकिन आज भी कृष्णा दी मुझे फोन करती हैं । सुख-दुख की चर्चा करती हैं। एक छोटी सी मदद के बदले इतनी आत्मीयता प्यार मिला।

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मध्यप्रदेश में जबलपुर मेरी जन्मभूमि है। मेरी स्मृतियों के कोष छलछल बहती नर्मदा, सतपुड़ा के घने जंगल और विंध्याचल की वादियों से जुड़े हैं । मदन महल के आसपास की चट्टानों पर लगे सीताफल के पेड़ों से, घुंघची की लाल काली बीजों वाली फलियों से कितना कुछ सीखा है मैंने । निरंतर बहते रहने का मंत्र, चट्टानी अवरोधों को सहजता से पार कर लेने का मंत्र । यही मेरे जीवन की बूंद भर कामयाबी का स्रोत है।

उन दिनों हिंदमाता से तेजस्वी भारत साप्ताहिक नगर पत्रिका निकलती थी। मधुराज संपादक थे। उन्होंने तेजस्वी भारत के लिए मुझसे बहुत लिखवाया। लगभग हर हफ्ते मेरी रचना उस में प्रकाशित होती पर पारिश्रमिक देने के नाम पर बहुत रुलाया उन्होंने। पारिश्रमिक लेने हम हिंदमाता का बेहद भीड़ भरा बाजार पार कर तेजस्वी भारत के ऑफिस जाते। खूब सारी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती। पारिश्रमिक का आधा दूधा मिलता । मन खट्टा हो गया। वहाँ लिखना बंद कर दिया।

अब मैं समीक्षाएं भी लिखने लगी थी। और किताबों की भूमिका भी। बलराम, सुधा अरोड़ा, सूर्यबाला, मन्नू भंडारी आदि की पुस्तकों पर मैंने समीक्षाएं लिखीं और भूमिकाएं तो अनगिनत । उभरती हुई लेखिकाओं को मैंने सपोर्ट किया । एक नई पौध तैयार की जो आज छतनारा दरख्त बन गई है। अब तो हाल यह है कि विभिन्न साहित्य अकादमियों में पाण्डुलिपि के लिए प्रसिद्ध पुस्तकों की समीक्षा मुझी से लिखवाई जाती है।

मेरी लघुकथाएं सारिका, नवभारत टाइम्स, पत्रिका, सर्जना, पुष्पगंधा, संरचना, लघु आघात, सरस्वती सुमन, सबरंग, संवाद सृजन का लघुकथा विशेषांक, मिन्नी( शहीद की विधवा पंजाबी में श्याम सुंदर अग्रवाल द्वारा अनूदित) स्पंदन, आरोह अवरोह, अविराम साहित्यकी आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। एक दिन डॉ सतीशराज पुष्करणा का पत्र आया कि आपको अखिल भारतीय लघुकथा मंच ने लघुकथा रत्न सम्मान के लिए चुना है जो पटना में आयोजित होगा। और यह 2012 में आयोजित 25 वां अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन होगा जिसमें अखिल भारतीय हिंदी प्रसार प्रतिष्ठान के अंतर्गत आपको सम्मानित किया जाएगा । मजे की बात यह थी कि यह पत्र लघुकथा नगर से आया था।

जाडों के दिन । दिसंबर की शुरुआत। पटना एयरपोर्ट पर स्वयं डॉ सतीश राज पुष्करना मुझे लेने आए । मुझे पुष्पा जमुआर जी के घर रुकना था। फ्रेश होकर बैठी थी कि पटना की मेरी लेखिका मित्र संजू पाल, निवेदिता वर्मा मिलने आ गईं । पुष्करणा दादा भी कल की व्यवस्था देख कर वहीं आ गए। रात 11:00 बजे तक हम बतियाते रहे। 12:00 बजे रात को पुष्करणा दादा प्रमिला वर्मा को स्टेशन से लिवा लाए।

सुबह 10:00 बजे नाश्ता चाय भी आयोजन स्थल पर ही था। भारत भर से लघुकथाकार इकट्ठे हुए थे । कांबोज जी, सुकेश साहनी जी, बलराम अग्रवाल जी और पटना की ही बेहद कर्मठ डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र जिन्होंने अपनी अंतिम साँस तक मेरा साथ दिया । उन्होंने न केवल अपने पति मूलचंद मिश्र की स्मृति में प्रियंवदा साहित्य सम्मान लखनऊ से मुझे दिया बल्कि बिहार की सरकारी साहित्यिक पत्रिका "परिषद पत्रिका" में मेरे आदिवासियों पर लेख भी प्रकाशित किए और 2 साल बाद भूटान में विश्व मैत्री मंच द्वारा आयोजित महिला लघुकथाकारों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में 12 सदस्यों को लेकर शामिल भी हुईं। विश्व मैत्री मंच के लिए उन्होंने बहुत काम किया । वे विश्व मैत्री मंच पटना शाखा की प्रभारी थीं। वे समय-समय पर मुझे सलाह देती रहतीं और जब मुझे दूसरी बार पटना में ही 2014 में प्रगतिशील लघुकथा संघ से लघुकथा सारस्वत सम्मान मिला तो मिथलेश दीदी की खुशी का ठिकाना न था

"तुम डिजर्व करती हो । "

अब वे हमारे बीच नहीं हैं। अब पटना जाने की हिम्मत नहीं होती।

अभी वर्ष 2019 बिहार साहित्य अकादमी द्वारा मुझे गोवा की गवर्नर मृदुला सिन्हा द्वारा महादेवी वर्मा शताब्दी सम्मान दिया जाना था जिसमें मैं नहीं गई । चित्रा मुद्गल दी ने कहा भी कि “आ जाओ । हमें तो नालंदा देखना है इसलिए जा रहे हैँ । “ मैंने कहा “नालंदा, वैशाली, बोधगया, राजगीर सब पहली पटना यात्रा में ही देख लिए थे। मेरे नहीं आने की वजह मिथलेश दीदी का न होना है । हालांकि पुष्पा जमुआर, मधु वर्मा, अनिल सुलभ सभी ने आग्रह पूर्वक बुलाया है। “

जिंदगी में जितना देखा हर चरित्र जो जैसा दिखा मुझे लगा उसके पीछे ढेरों कहानियाँ हैं। अवसाद, पीड़ा, जिंदगी से संतुष्टि और खुद के लिए जीने, पाने की चाह । मेरी कई कहानियाँ इन सब की गवाह है।

इन कहानियों के जरिए अनगिनत पाठक मुझसे जुड़े। कभी तारीफों के पुलिंदे लिए, कभी आलोचना के, कभी बखिया उधेड़ते हुए तो मुझे लगता इस बहाने मेरा लेखन निखर तो रहा है। साथ ही मैं पाठकों से गहरे जुड़ती जा रही हूं और वे अब अधिक समय तक मुझे याद रखेंगे । कहानियों में तो सभी कुछ का खाका खींचना होता। कहानियों के चरित्रों ने ही मुझे धर्मनिष्ठ समाज की कठोर मान्यताओं से मिलवाया, दोहरे मानदंडों और आडंबरों से रूबरू करवाया । मैंने अपनी कहानियों के जरिए समाज को खंगाला । आंकड़ों को जुटाया और इसीलिए मेरे भीतर इस सब के विरुद्ध लावा सुलगने लगा। मेरा कट्टरपंथी समाज की मान्यताओं से विश्वास उठ गया और यही वजह है कि मैं पारिवारिक, सामाजिक आयोजनों में रहना पसंद नहीं करती । मेला उत्सव से भरी जगह मुझे कभी आकर्षित नहीं करती। शादी ब्याह में स्वयं न जाकर उपहार भेज देना मैंने अपने स्वभाव में शामिल कर लिया । मैं इस सब से दूर प्रकृति से जुड़ने लगी। प्रकृति के रंग रहस्य मुझे संबोधित करते। प्रकृति ढोंगी नहीं है। निश्छलता से अपना सौंदर्य लुटाती है । बर्फीले पहाड़ मीलों फैले घने जंगल साफ शफ्फाक पानी से भरी नदियाँ, पारदर्शी झरने। इन सब में घूमते हुए मैंने पाया कि प्रकृति का अपना एक नशा है। जो धीरे-धीरे सुरूर देता है।

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जगदलपुर बस्तर से आमंत्रण था। कादम्बरी संस्था की मोहनी ठाकुर और उर्मिला आचार्य ने मेरे लिए एक सम्मेलन आयोजित किया था । सम्मेलन में मेहरून्निसा परवेज के पति रऊफ परवेज़ से मुलाकात हुई । वह होटल में मिलने भी आए और अपनी गजलों की किताब मुझे भेंट की। अभी कुछ ही समय हुआ उनका देहांत हो गया।

जगदलपुर में राजेंद्र गायकवाड से मुलाकात हुई। वे स्वयं अच्छे शायर और जगदलपुर जेल में जेलर थे। हमें महिला वार्ड देखना था। जेल देखकर कलेजा काँप गया। किले जैसी ऊंची ऊंची दीवारें। हर महिला कैदी की आँखों में सवाल कि हमें किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया । कुछ पर तो जुर्म साबित करना शेष था और वे विचाराधीन कैदी थीं।

मैंने अपनी स्त्री विमर्श की पुस्तक "मुझे जन्म दो माँ "में विचाराधीन महिला कैदियों पर पूरा एक अध्याय लिखा है "खामोश चीखों का जंगल। "

वहाँ कैदियों के हाथों से तैयार दरियां, चादरें, कालीन आदि का शोरूम था। मैं चादर खरीद कर लाई हूँ पर उसे आज तक नहीं ओढ़ पाई। मुझे लगता है चादर बुनते हुए कैदी की मन:स्थिति भी इसमें बुन गई होगी जो मुझे हॉन्ट करेगी।

2012 की मई में सृजन गाथा डॉट कॉम से फिर बुलावा था । वियतनाम कंबोडिया में आयोजित सातवें अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का। वहां मुझे सृजनगाथा साहित्य सम्मान दिया जाना था।

वियतनाम कंबोडिया घूमना बहुत निराशाजनक और दुखदाई रहा। हमने सोचा कि क्यों न हम अपनी एक अलग संस्था स्थापित करें पर्यटन और साहित्य के उद्देश्यों को लेकर। लिहाजा मुंबई में "विश्व मैत्री मंच "की स्थापना (अधिकृत हेमंत फाउंडेशन ) 8 मार्च 2014 महिला दिवस के अवसर पर हुई। उद्घाटन समारोह किया । उद्देश्यों में चित्रकला, नाट्यकला,

पर्यटन और साहित्य को जोड़ा तथा मुख्य उद्देश्य में कला से संबंधित छुपी हुई योग्य प्रतिभाओं को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंच प्रदान करना यानी एक तरह से टैलेंट हंटिंग। साथ ही साझा काव्य संकलन, कहानी संकलन, लघुकथा संकलन प्रकाशित कर उन्हें प्रोत्साहित करना। इस संस्था से भारत भर से लोग जुड़े और इसकी शाखाएं छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और दिल्ली में खुल चुकी हैं । रूस, भूटान, मिस्र, उज्बेकिस्तान, दुबई में अंतरराष्ट्रीय तथा डलहौजी, धर्मशाला, अहमदाबाद, भंडारदरा, खजुराहो, बांधवगढ़, केरल, भोपाल, आगरा, रायपुर में राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं।

चिंगारी, बाबुल हम तोरे अंगना की चिड़िया साझा काव्य संकलन तथा सीप में समुद्र साझा लघुकथा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।

इस संस्था में मेरा मन खूब रमता है। मुझे जैसे जीने का बहाना मिल गया। मैं अकेली ही राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों की तैयारियों में जुटी रहती हूँ।

विश्व मैत्री मंच की ख्याति से प्रेरित हो लाफ्टर क्लब के अध्यक्ष शाहिद खान मेरे घर यह प्रस्ताव लेकर आए कि दोनों संस्थाएं एकजुट होकर काम करें। उन्होंने हमेशा के लिए नेहरू सेंटर का हॉल बुक कर लिया है। उनके श्रोता अमीर खानदान के, खाए पिए, अघाए लोग हैं जिन्हें साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं । मंच पर चुटकुलों की प्रस्तुति और प्लेट में स्वादिष्ट पकवान हो ताकि उनकी शाम अच्छी गुजरे। निश्चय ही हमारी “न” थी हालांकि उन्होंने मेरे जन्मदिन पर नेहरू सेंटर में अच्छी-खासी पार्टी अरेंज की थी और मेरा एकल कविता पाठ भी रखा था।

हेमंत फाउंडेशन प्रतिवर्ष केवल हेमंत स्मृति कविता सम्मान तथा विजय वर्मा कथा सम्मान ही देता है लेकिन इस बार फैज अहमद फैज की जन्म शताब्दी मनाने का कार्यक्रम भी बना। उर्दू विभाग के प्रमुख साहिब अली के सहयोग से मुंबई विश्वविद्यालय कालीना में एक शाम देश के नाम संगोष्ठी आयोजित की गई जिसमें महानगर के प्रमुख शायरों, रचनाकारों ने भाग लिया।

मुंबई विश्वविद्यालय के परिसर में हिन्दी भवन का नाम कविवर डॉ राम मनोहर त्रिपाठी हिन्दी भवन रख दिया गया है। डॉ राम मनोहर त्रिपाठी ने ही मेरे प्रथम कहानी संग्रह " बहके बसन्त तुम" का लोकार्पण किया था जिस पर मुझे महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार मिला था । उनके नाम से महाराष्ट्र साहित्य अकादमी अखिल भारतीय हिंदी सेवा पुरस्कार देती है । इसी तरह उर्दू घर का नाम डॉक्टर जाकिर हुसैन उर्दू घर रखा गया।

एक शाम फ़ैज़ के नाम संगोष्ठी की बधाई देते हुए महेंद्र भटनागर का ग्वालियर से फोन आया "अच्छा काम कर रही हो संतोष, मेरा पुत्र कुमार आदित्य तुमसे मिलने आएगा । ग्वालियर से कुछ मंगवाना हो तो बताना। " उन्होंने अमित के हाथ अपनी कुछ पुस्तकें भेजीँ और एक पत्र भी जिसका आशय था कि कुमार आदित्य फिल्मों में प्लेबैक सिंगर बनना चाहता है और इस सिलसिले में मेरी मदद भी अपेक्षित है। पर मैं तो फिल्मों से कोसों दूर हूँ और किसी को जानती नहीं थी। रमेश होते तो यह काम हो सकता था । कुमार आदित्य बहुत अपनत्व से मिले। हेमंत की किताब "मेरे रहते" ले गए और एक महीने के अंदर उसकी दो कविताएं "तुम हंसी "और "मैं अकेला खड़ा रह गया "कंपोज करके अपनी आवाज में स्वरबद्ध कर सीडी मुझे दी। मैं उन गीतों के तरन्नुम में खो गई । कुमार आदित्य ने हेमंत की नई प्रतिभा से मेरा परिचय करवाया।

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कुछ देश ऐसे रहे जो मेरी भ्रमण लिस्ट में कहीं फीके फीके से अंकित थे। ऐसा ही था श्रीलंका। पर अब लगता है श्रीलंका नहीं जाती तो एक साथ बहुत सारी चीजों से वंचित रह जाती। जैसे

2014 की फरवरी में श्रीलंका के जयवर्धनपुरे विश्वविद्यालय में आयोजित अंतरराष्ट्रीय शोध कॉन्फ्रेंस में शामिल होना और ऐन कार्यक्रम के दौरान लाइट चली जाने से मोमबत्ती की रोशनी में अपना प्रपत्र पढ़ना। इस कॉन्फ्रेंस में दुनिया के 8 देशों ने शिरकत की थी जिसमें भारत भी एक था।

साथ ही सबसे खूबसूरत ठंडे हिल स्टेशन नुवाराईलिया में एक पूरा दिन और रात बिताना बगैर गर्म कपड़ों के।

ढेरों चाय बागान, जड़ी-बूटियों और मसालों के उद्यान। नारियल पीले और हरे दोनों तरह के मगर इतने बड़े कि एक नारियल एक आदमी पूरा नहीं पी सकता। रामायण से जुड़े बहुत सारे मंदिर और स्थल। कैंडी में बुद्ध का एक दांत रखा हुआ है और उसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर का दर्जा दिया है। कोलंबो, नोवागोड़ा, सीलोन रेडियो स्टेशन जहां से बिनाका गीतमाला अमीन सयानी की आवाज में सुनते थे। हिंद महासागर के तट पर बसा खूबसूरत समुद्री शहर बेंटोटा। महाबली गंगा की लहरों पर बोट पर सवार होकर मैंग्रोव्स के सघन वन से गुजरना यादों में अंकित है।

एक सप्ताह के बाद जब भारत लौटी तो खुशखबरी इंतजार में थी । मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल का नारी लेखन पुरस्कार का पत्र मेरी बाट जोह रहा था। यह पुरस्कार "नीले पानियों की शायराना हरारत " को दिया जा रहा था जिसमें मेरे 18 देशों के यात्रा वृत्तांत संकलित हैं। यह पुस्तक नमन प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी और लोकार्पण नासिक में साहित्य सरिता मंच ने किया था । नासिक और पूना के साहित्यकारों को भी आमंत्रित किया गया था। मराठी दैनिक अखबार देशकाल ने इस समाचार को पूरे पेज पर फोटो सहित छापा था। समारोह में मराठी अख़बार सार्वमत के संपादक श्री कृष्ण सार्डा विशिष्ट अतिथि थे। स्टॉल भी लगा था जिसमें पुस्तक की कई प्रतियां हाथों हाथ बिकी थीं।

इस पुस्तक पर पुरस्कार दिए जाने की घोषणा मुंबई के अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित की।

मुझे 1 अक्टूबर को भोपाल पहुंचना था जहाँ 2 अक्टूबर को हिन्दी भवन में मध्यप्रदेश के राज्यपाल माननीय रामनरेश यादव के कर कमलों से मुझे पुरस्कृत किया जाना था । आयोजन में कई नए पुराने साहित्यकारों से मुलाकात हुई। अच्छा लगा भोपाल में। अच्छा भी और कई मायनों में फलदायक भी । पुरस्कार के अतिरिक्त साहित्यकारों से जुड़ाव सहित नई संभावनाओं से ओतप्रोत मैं मुंबई लौटी।

इन सभी यात्राओं से मेरे लेखन को नया विजन मिला। नया विस्तार मिला। यह विजन लेखन के लिए एक प्रकार की गहरी दस्तक, मेरे भीतर उठे संवेगों, दुरभिसंधियों और प्रतिक्रियाओं का जमघट लेखन की जड़ों को और और गहरे धंसाता जाता है। मैं साफ़ महसूस करती हूँ मेरे भीतर के किवाड़ों के खुलकर चरमराने की आवाज । जाहिर है मेरे मन में इन सभी बातों का मंथन, दोहन चलता रहता है। लेखन की एक नई सदा सुनाई देती है। तब वीरानियों में हरियाली का सागर लहराता है।

जनवरी 2015 विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में अशोक बाजपेयी के हाथों सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित "टेम्स की सरगम "के अंग्रेजी अनुवाद Romancing The Thames का लोकार्पण हुआ और मैं और प्रमिला विकेश निझावन जी के आग्रह पर बस से अंबाला चले गए । विकेश जी अपने बेटे अरुण के साथ स्टेशन पर लेने आए । हमारी बस शाम को पहुंची । ठंड अपने चरम पर थी।

विकेश जी के खूबसूरत बंगले में ही हमारे रुकने की व्यवस्था थी। खूब खातिर सत्कार हुआ। सुबह विकेश जी की पत्नी विजया भाभी के बनाए स्वादिष्ट नाश्ते के बाद विकेश जी पुष्पगंधा के ऑफिस ले गए जो उसी बंगले के एक हिस्से में था ।

मेरे सम्मान में शाम 4:00 बजे की गोष्ठी की पूरी तैयारी की गई थी। जगह जगह टेबल पर मेरी किताबें, मुझ पर केंद्रित विशेषांक की प्रतियां, दीवारों पर पुष्पगंधा के पुराने अंकों के मुखपृष्ठ लगे थे।

अंबाला के मेरे प्रशंसकों और साहित्यकारों ने वह पूरी शाम मेरे लेखन पर ही चर्चा की। मेरी कविताएं और लघुकथाएं सुनीं और गरमागरम समोसे, पकोड़े, चाय के बीच ढेरों साहित्यिक चर्चाएं हुई। इस सब में डूबी मैं अभी उबर भी नहीं पाई थी कि मेरी रचनाओं के प्रशंसक साहित्य प्रेमी मोहनदास फकीर हमें अंबिका देवी के मंदिर ले गए। वे उस मंदिर के संरक्षक थे। उन्होंने मंदिर के द्वार पर ही गुलाब के फूलों से हमारा भव्य स्वागत किया। दूसरे दिन सुबह हमें विकेश जी अपनी गाड़ी से पिछले 50 वर्षों से निकल रही मासिक पत्रिका शुभ तारिका की संपादक उर्मी कृष्ण के घर ले गए।

शुभ तारिका में मेरी कई रचनाएं छप चुकी थीं। मुझे अचानक सामने देख वे बेहद खुश हो गईं और शुभ तारिका के कुछ पुराने अंक मेरे लिए ले आईं।

उर्मी जी कहानी लेखन महाविद्यालय भी चलाती हैं और अपने पति डॉ महाराज कृष्ण की स्मृति में प्रतिवर्ष शिलांग में आयोजन करती हैं।

डॉ महाराज कृष्ण दिव्यांग थे और उनकी पूरी जिंदगी व्हील चेयर पर ही बीती थी। लेकिन उर्मी कृष्ण ने उनकी इतनी सेवा की। उन्हें व्हीलचेयर पर ही वे पर्यटन के लिए ले जाती थीं और शुभ तारिका में उनका साथ देती थीं। मैं उनकी जिजीविषा को सलाम करती हूं।

वहां से हम कुरुक्षेत्र के लिए रवाना हो गए कितना अद्भुत संयोग है कि भीष्म पितामह ने सूर्य उत्तरायण होने पर कुरुक्षेत्र में प्राण त्यागे और हम भी उत्तरायण पर ही वहां पहुंचे। महाभारत काल मानो जीवंत हुआ और उससे जुड़ी स्मृतियां, स्थापत्य, मन्दिर, ब्रह्मसरोवर आदि का दर्शन करते हुए हम लोगों ने विजया भाभी के द्वारा बनाए हुए गोभी के पराठे और अमिया के अचार का ब्रह्मसरोवर की सीढ़ियों पर बैठकर स्वाद लिया।

विकेश जी के घर से मुझे इतना अपनत्व मिला कि मेरी विदाई पर विजया भाभी ने मुझे उपहारों से लाद दिया । कपड़े, मूंगफली, रेवड़ी। लग ही नहीं रहा था कि अभी दो दिन पहले ही इस घर में पहली बार आई हूं।

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