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मेरे घर आना ज़िंदगी - 10

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(10)

चर्चगेट स्थित इंडियन मर्चेंट चेंबर का सभागार बुक कर लिया । शैलेंद्र सागर, विभूति नारायण राय, काशीनाथ सिंह, भारत भारद्वाज सब पुलिस गेस्ट हाउस में रुकेंगे। निमंत्रण पत्र छप गए बल्कि सबको बुक पोस्ट से भेज भी दिए। डिनर का एडवांस भी दे दिया। पुरस्कार की तिथि के एक दिन पहले घर में अतिथियों और मुंबई के मेरे खास साहित्यकार मित्रों का घर पर गेट टुगेदर रखा था। चूंकि रमेश ड्रिंक लेते थे अतः उन्होंने सबके लिए ड्रिंक का इंतजाम भी किया था । डिनर हमने ऑर्डर कर दिया था। सो सबके साथ इत्मीनान से पार्टी चल रही थी। काशीनाथ सिंह जी फिल्म अभिनेत्री रेखा से मिलने के किस्से सुना रहे थे। मनोज शर्मा एसिडिटी के शिकार, डिनर में पूरियां थी जो वे बिल्कुल नहीं खा सकते थे तो मैं उनके लिए रोटियाँ सेक रही थी। तभी फोन पर सूचना मिली शीला जीजी नहीं रहीं। एकाएक मिली सूचना ने हमें हिला कर रख दिया। मैं और प्रमिला आँसुओं को घोंटकर इस खबर को किसी को न बताने के लिए एक दूसरे को मना रहे थे । खबर बता दी गई तो पुरस्कार रोकना पड़ेगा । सारे अतिथि कमरे में मौजूद हैं । कैसे होगा? नामुमकिन। जीजी बीमार थीं। उनके पैरों में ऑक्सीजन नहीं पहुँच रही थी । एक पैर काला पड़ गया था। जिसे काटने की डॉक्टरों की सलाह थी । एंजाइना, डायबिटीज से पीड़ित थीं वे। सीवियर हार्ट अटैक । हमने तत्काल की आगरा की टिकटें बुक करा लीं। कल समारोह के बाद परसों निकलना था।

समारोह तो शानदार होना ही था । दो महीने की मेहनत जो थी हमारी। समारोह के बाद गाड़ी में मैं प्रमिला और आलोक भट्टाचार्य मीरा रोड लौट रहे थे। अंधेरी से आलोक जी डोंबिवली के लिए ट्रेन लेंगे । आखिर हमारे सब्र का बांध टूट गया। हमें आँसू बहाते देख आलोक जी ने सारी स्थिति मालूम कर ढांढस बंधाया।

" मुझे तो तुम दोनों के सब्र पर गर्व हो रहा है। खासकर संतोष के । सुनो संतोष, मैंने जब जब तुमको देखा/ लोहा देखा/ लोहे जैसा तपते देखा/ गलते देखा/ ढलते देखा/ मैंने तुमको गोली जैसा चलते देखा/( केदारनाथ अग्रवाल) माय डियर संतोष, यू आर आयरन लेडी। "

जीजी के घर में मृत्यु से पसरे सन्नाटे में खुद को खपाना जानलेवा था । अम्मा के जाने से आगरा का सूनापन जीजी की वजह से दूर हुआ था। अब तो मायका ही खत्म। एक साल बाद ही जीजाजी आगरे की अपनी कोठी बेच ग्वालियर शिफ्ट हो गए थे । कोठी के रूपयों में उन्होंने अहमदाबाद में भी एक फ्लैट खरीद लिया था कि सबसे छोटी बेटी की शादी के बाद वहाँ जाकर रहेंगे । लेकिन न उनके जीते जी शादी हुई न वे अहमदाबाद वाले फ्लैट में रहे। ग्वालियर में ही उन्होंने शीला जीजी की मृत्यु के 6 साल बाद अंतिम सांस ली ।

मेरी काफी बर्बादी का कारण जीजाजी रहे। उसका उल्लेख मैं आगे के अध्याय में करूंगी।

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मेरा ज्यादातर समय समीक्षाएं लिखने में व्यतीत होने लगा। उस दौरान कई किताबों की समीक्षाएं और भूमिकाएं लिखीं। पढ़ा भी खूब । पत्रिकाएँ उलट पलट कर समझ लेती थी कि मुझे क्या पढ़ना है ।

तभी हेमंत के कागज पत्तर भी तलाशे। कई पूरी, कई अधूरी कविताएँ हाथ लगीं जिन्हें पढ़कर मेरा दिमाग चकरा गया । क्या हेमंत को पहले से अपनी मृत्यु का आभास था? वरना वह ऐसी कविताएँ कैसे लिख गया। मैंने प्रमिला को कविताएँ दिखलाईं। वह तब मेरे ही साथ रहती थी और संझा लोकस्वामी में पत्रकार थी। कई दिन हम दोनों उन कविताओं में खोए रहे। आलोक भट्टाचार्य को दिखाया । उनकी और हेमंत के दोस्तों की इच्छा हेमंत के नाम से कविता पुरस्कार शुरू करने की थी। हमने वीरेंद्र कुमार बरनवाल जी से भी इस विषय में राय ली। वे तब मुंबई में कमिश्नर थे। उनसे हमारे घरेलू संबंध थे। मैंने उनके घर जाकर हेमंत की कविताएँ उन्हें दिखाईं। वे हतप्रभ रह गए।

" इतनी संवेदना? वह तो कवि जन्मा था। "

तय हुआ कि पुरस्कार आरंभ करने के पूर्व हेमंत की कविताओं का संग्रह प्रकाशित होगा। डॉ विनय से बात हुई। दिल्ली में सुरेंद्र कुमार का ग्रंथ भारती प्रकाशन था। डॉ विनय ने उनसे बात की और किताब की सेटिंग, प्रूफ पढ़ने आदि में मदद की । प्रूफ पढ़ते हुए वे भावुकता वश बार-बार छलक आई आँखों को पोछते-" कमबख्त को जैसे आभास था अपनी मृत्यु का। " प्रकाशक सुरेंद्र कुमार एंड संस ने कड़ी मेहनत करके ढाई महीनों में 155 पृष्ठों की हार्ड बाउंडेड किताब छाप कर दे दी। इस संग्रह के 12 रेखाचित्र हेमंत ने बनाए हैं। जिन्हें नई स्याही प्रदान की है प्रफुल्ल देसाई ने। मशहूर पत्रकार और जेजे स्कूल आफ आर्ट्स के पढ़े देसाई जी ऐसे चित्रकार हैं जिनकी उंगलियों में जादू है ।

तब देसाई जी के पैर में फ्रैक्चर हो गया था। प्लास्टर बंधा था। वे बैसाखियों के सहारे डॉ विनय के मीरा रोड स्थित घर जाकर उन्हें चित्र देते थे । इस संग्रह का ब्लर्ब आलोक जी ने लिखा है जो उन्होंने मुझे फोन पर डिक्टेट किया था। हेमंत के पहले और अंतिम संग्रह का नाम तय हुआ "मेरे रहते। " भूमिका प्रमिला ने लिखी। इतनी मार्मिक कि जिसने भी पढा रो पड़ा । हेमंत स्मृति कविता सम्मान के निर्णायक भारत भारद्वाज, सुरेश सलिल और वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने चयन तो कर लिया था, किताब हाथ में आते ही बोधिसत्व के नाम की घोषणा कर दी ।
और मेरा साहित्यिक सँसार ‌‌........वो एक चिडिया होती है न थॉर्न बर्ड, उसे न जाने कैसे पता चल जाता है कि उसका अंत आ गया है। वह अपने अंतिम क्षणों में कँटीली डाल पर बैठकर मृत्यु गीत गाती है। काँटा चुभता जाता है और मृत्यु गीत गाते हुए वह धीमे-धीमे समाप्त हो जाती है । मुझे मुम्बई के साहित्यकारों ने थॉर्न बर्ड नहीं होने दिया। पूरा मुम्बई हेमंतमय हो रहा था।

पुरस्कार की घोषणा समारोह की तैयारी और साथ ही हेमंत के दोस्तों ने मिलकर उस पर एक घंटे की डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने की योजना बनाई। स्क्रिप्ट प्रमिला ने लिखी। कमेंट्री प्रसिद्ध डबिंग कलाकार सोनू पाहुजा की थी। सोनू फिल्म और सीरियल में आवाज़ के लिए जाने जाते थे। बेंजामिन और स्वाति ने डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग में कड़ी मेहनत की। सुबह से शाम तक वे स्टूडियो में ही रहते थे। कैमरामेन ने विल्सन कॉलेज, गिरगाँव चौपाटी को भी शूट किया था। जहाँ हेमंत ने कॉलेज की पढ़ाई की थी। डॉक्यूमेंट्री का नाम "सपने कभी नहीं मरते" रखा गया।

हेमंत के बाद यादों को सनद का रूप देना हेमंत के दोस्तों सहित हम सब के लिए तसल्ली भरा था। स्वाति का पागलपन चरम पर था । उसने हेमंत की इस्तेमाल की वस्तुओं को शो केस में सजा कर रखा था । वह शनिवार को ऑफिस से मेरे घर आ जाती और सोमवार की सुबह घर से ऑफिस जाती । उसने हेमंत की तस्वीर का मंदिर बनाया था जिसमें फूल माला चढ़ाकर अगरबत्ती जलाती और फोटो के सामने बैठी रहती। उसकी इच्छा थी रोज फोटो पर फूल चढ़ाए जाएं। फूल वाला सफेद खुशबूदार नरगिस के फूलों का हार दे जाता। बदलते मौसम में हार के फूल बदल जाते । खुशबू भी बदल जाती। यह सिलसिला हेमंत की बरसी तक चला। एक प्रेम ऐसा भी जहाँ आकर शब्द चुक जाते हैं। स्वाति की पीड़ा में अपने दुख को समाहित कर अब मुझे स्वाति हेमंत नजर आने लगी थी। उस दिन बाजार से लौटकर मैंने दरवाजे का लैच खोला तो चौंक पड़ी। स्वाति की गोद में हेमंत की लैमिनेट की हुई बड़ी तस्वीर थी और उसके आँसू हेमंत की आँखों में गिर रहे थे। मैंने उसे गले से लगा लिया। हम देर तक आँसू बहाते रहे । वह रोते-रोते बोली -"मम्मी हेमंत ने कहा था अगर मुझे कुछ हो जाए तो मम्मी का ध्यान रखना । रिश्तेदारों का क्या है रो धोकर चले जाएंगे । मम्मी, मैं आपको कभी नहीं छोडूंगी ।

वह पूरा साल मेरी जिंदगी का सबसे वेदना भरा साल था कि जैसे जिंदगी का कैलेंडर बस इस साल के पन्ने को टुकड़ा टुकड़ा होते देख रहा हो। नहीं बटोर पाई मैं उन टुकड़ों को । मेरे सामने स्वाति थी । हेमंत में निमग्न, समाधिस्थ बाला सी। उसकी आई ने मुझे बताया था कि "क्या होगा इसका ! अंधेरे में बैठी रहती है । कहती है हेमंत आएगा तब लाइट जलाऊंगी । "

मेरा मन तड़प उठा था । क्या मैं उसे गोद ले लूं? क्या मैं सारी उम्र उसकी होकर जिऊं। पर शायद इससे उसे और संताप मिलेगा । मेरे साथ रहकर मुझे देखकर वह कभी हेमंत को नहीं भूल पाएगी । सभी स्वाति को इस दुख से उबारने की कोशिश में लगे थे । हेमंत के ऑफिस में उसके बॉस ने हेमंत की आत्मा की शांति और उससे भी बढ़कर स्वाति की तसल्ली के लिए, उसे वापस अपने जीवन में लौट आने की प्रेरणा के लिए यज्ञ करवाया। बेंगलुरु से खास इसी काम के लिए 11 पंडित बुलवाए। यज्ञ में करीब 500 लोग शामिल हुए। सारे दिन मंत्र, उच्चारण, हवन, आहुतियां चलीं। शाम को दिव्य भोज। स्वाति के चेहरे पर भी दिव्य आलोक था । अब वह समझ चुकी थी कि हेमंत चला गया है और कभी लौटकर नहीं आएगा। मैंने उसे आगे की पढ़ाई के लिए तैयार किया। मुझे तसल्ली है कि अब वह उरण में विदेशी कंपनी में ऑफिसर है और काफी सम्हल चुकी है।

फरवरी 2001 प्रथम हेमंत स्मृति कविता सम्मान समारोह चर्चगेट स्थित यूनिवर्सिटी क्लब हाउस में संपन्न हुआ राजेंद्र यादव जी की अध्यक्षता में मुख्य अतिथि मराठी के मूर्धन्य लेखक गंगाधर गाडगिल के हाथों बोधिसत्व को प्रदान किया गया। डॉ दामोदर खडसे और वीरेंद्र कुमार बरनवाल के वक्तव्य ने सभागार को रुला दिया। सभी के दिलों में हेमंत और आँखों पर रुमाल था और ऐसा होना लाजमी था। हेमंत का बचपन मुम्बई के साहित्यकारों की गोद में बीता था । आत्मीय जुड़ाव था सब का । देश विदेश से बधाइयों का तांता लग गया। जिसने भी हेमंत स्मृति के आयोजन को सुना मेरी हिम्मत को सराहा। हेमंत का कविता संग्रह मेरे रहते रमण मिश्र ने परिदृश्य प्रकाशन के स्टॉल से सटे टेबल पर रखा था जो हाथों हाथ बिक गया । दूसरे दिन मुंबई के समाचार पत्रों में प्रमुखता से समारोह की न्यूज़ छपी। सभी पत्रिकाओं ने और देश के सभी पत्रों ने भी पुरस्कार समाचार फोटो सहित छापा ।

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लंबे अरसे बाद खुशी की खबर ने दस्तक दी। मेधा बुक्स प्रकाशन दिल्ली से मेरा उपन्यास मालवगढ़ की मालविका (2003) प्रकाशित हो चुका था। 5 वर्षों का मेरा श्रम पुस्तक रूप में देख पाऊंगी। यह उपन्यास सती प्रथा के विरोध में लिखा था और इसमें मैंने कठिन होमवर्क किया था । इसका ब्लर्ब महेश दर्पण ने लिखा । यह ब्लर्ब उपन्यास की तह टटोल लाता है।

वे लिखते हैं

“कथा से कहन या किस्सागोई के विलुप्त होते जाने का जो भय इधर उपन्यास विधा को ग्रसता रहा है संतोष श्रीवास्तव का यह उपन्यास असरदार रूप में उस से मुठभेड़ करता है। स्वतंत्रता आंदोलन के कथा समय में प्रताप भवन के सामंती परिवेश से शुरू हुआ यह उपन्यास जीवन और समाज के कई आयामों को अपने फोकस में लेकर चलता है और मानवीय संवेदना के कई स्तरों को छूता, सहलाता, ठकठकाता हुआ आगे बढ़ता है । एक ओर जहाँ सामंती जीवन अपनी पूरी लय में उद्घाटित है वहीं दादी के चरित्र ने समूची कथा को ऐसे आकर्षक सूत्र में बांधे रखा है कि आगामी पीढ़ियां भी उससे मुक्त नहीं हो पातीं। जीवन इस उपन्यास में उत्सव की भांति उपस्थित है तो नई और पुरानी विचार दृष्टियां भी उपन्यास की संरचना को एक सुदृढ़ आधार देती हैं । गल्प के मायाजाल में बंधा हुआ पाठक कभी स्वयं को पारिवारिक परिवेश में पाता है तो कभी स्वाधीनता आंदोलन के बीचो-बीच खड़ा उसका हिस्सा बन जाता है। गर्ज़ यह कि एक के बाद एक अनेक तिलिस्म के बीच से गुजरता हुआ यह उपन्यास पाठक को चंद्रकांता जैसे उपन्यासों की भांति अपने ग्रिप में अंत तक लिए रहता है। पारंपरिक कथा स्वभाव के निकट होने के बावजूद यहाँ लेखिका की दृष्टि अपने समय के स्त्री प्रश्नों पर भी लक्ष्य की जाएगी । बेशक वे इन स्त्री प्रश्नों को आरोपित आधुनिकता के बजाय ऐतिहासिक संदर्भों में ही उठाती हैं लेकिन पूरे परिप्रेक्ष्य के साथ । इस दृष्टि से दादी और मालविका के बाद जिम वेल का चरित्र भी इस उपन्यास की शक्ति बनकर सामने आता है । सती- दाह जैसी स्त्री विरोधी कुरीतियों, आडंबरों के विरुद्ध उभरता इस उपन्यास का कथ्य स्वर निकट अतीत की एक ऐसी कुंजी विकसित करता है जिससे वर्तमान के कई अनसुलझे रहस्य स्वयमेव खुल-खुल जाते हैं। मालवगढ़ की मालविका में परिवेश के अनुरूप ढली कथा भाषा एक ऐसा जादू खड़ा करती है जो उपन्यास की लोकप्रियता की पहली शर्त है लेकिन हिंदी का आधुनिक उपन्यास जिससे लगभग रिक्त महसूस किया जा रहा है। इस दृष्टि से भी इस उपन्यास को एक सार्थक हस्तक्षेप माना जाना चाहिए। “

सुरेश सलिल से मेरी इंदौर में पहल सम्मान के दौरान इस उपन्यास के प्रकाशन की बात हुई थी। उन्होंने मेधा बुक्स से प्रकाशित करवाने की सलाह दी और यह भी कि उसके पहले कथादेश से धारावाहिक छपाते हैं। लेकिन यह संभव न था क्योंकि वह पहले से ही मुम्बई की स्थानीय पत्रिका में धारावाहिक छप रहा था । मेधा बुक्स अब साहित्य की किताबों के प्रकाशन की ओर मुड़ रहा था और उन्हें शुरुआत में 10 किताबें प्रतिष्ठित लेखकों की छापनी थीं। मुझे खुशी है कि उन 10 लेखकों में मैं भी शामिल थी । किताब का कवर राजा रवि वर्मा द्वारा बनाई प्रसिद्ध पेंटिंग थी जो मेरे मनपसंद हरे रंग के फ्रेम में थी।

अलग से तो नहीं पर उसी वर्ष के पुरस्कार समारोह में उपन्यास का लोकार्पण राजेंद्र यादव के हाथों संपन्न हुआ । रिबन खुला । चर्चा नहीं हुई। इस उपन्यास ने दो बड़े पुरस्कार प्राप्त किए । प्रियदर्शनी अकादमी पुरस्कार जो मुझे सन 2004 में महाराष्ट्र के वित्त मंत्री श्री जयंत पाटिल के हाथों मिला और इसी वर्ष की 1 मई मज़दूर दिवस पर वसंतराव नाईक प्रतिष्ठान साहित्य पुरस्कार जो मुंबई के राजभवन (गवर्नर हाउस )में तत्कालीन गवर्नर एसएम कृष्णा के कर कमलों से मिला। तब तक उपन्यास की सात पत्रिकाओं में समीक्षा छप चुकी थी ।

भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा विश्व भर के प्रकाशन संस्थानों को शोध एवं तकनीकी प्रयोग( इलेक्ट्रॉनिक्स )हेतु देश की उच्चस्तरीय पुस्तकों के अंतर्गत "मालवगढ़ की मालविका " उपन्यास का चयन भी हुआ।

यह मेरे लिए बहुत बड़ी खबर थी । इसी उपन्यास ने मुझे जेजेटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और मुंबई के सबसे चर्चित संस्थान राजस्थानी सेवा संघ के अध्यक्ष विनोद टिबड़ेवाल तक पहुँचाया । उपन्यास पढ़कर विनोद जी ने मुझे घनश्यामदास पोद्दार हाई स्कूल में अध्यापिका के पद पर नियुक्त किया। लेकिन यह बाद की बात है । 2003 में मालवगढ़ की मालविका के साथ-साथ यात्री प्रकाशन दिल्ली से मेरा और प्रमिला का संयुक्त उपन्यास "हवा में बंद मुट्ठियाँ" प्रकाशित होकर आ गया। उपन्यास की प्रति हाथ में लेते ही मेरी आँखें छलक पड़ी थीं। जिसके सृजन में हेमंत ने इतनी दिलचस्पी ली थी। काश यह उसके सामने छपकर आता।

जिंदगी हमसे कितना कुछ वसूल लेती है थोड़ा सा देने के एवज । रात भारत भारद्वाज को फोन लगाया "जिंदगी निरर्थक लग रही है भारत जी, खुद को समझाती हूँ पर समझा नहीं पाती। " "ऐसा क्यों सोचती हैं आप । हेमंत का चले जाना ईश्वरीय संकेत है । वह आपसे और भी बड़ा कार्य कराना चाहता है। आपके लेखन के मकसद की शुरुआत समझिए कि जिसके लिए ईश्वर ने आपको अकेला किया । "

और मैं लिख रही हूँ। हाँ मैं लिख रही हूँ। लिखती रहूँगी । इस निरंतर लिखते रहने के लिए मैंने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है । इतिहास बताता है कि मनुष्यों की जो भी नस्ल विनाश के बाद पुनः उभरी उसने खुद को फिनिक्स से जोड़ लिया। न जाने क्यों यह जुड़ाव मुझे बहुत अपना सा लगता है। लेखक बार-बार महाविनाश से गुजरता है । बार-बार स्वाहा होता है। और बार-बार पुनर्जीवित हो जाता है। पुनर्नवा होना कलम के साथी का तेज है । हौसला है। मैं खुद को पुनर्नवा होते पाती हूँ। देख रही हूँ मेरे आस-पास रेशमी जाल सा बुनता चला जा रहा है। पर कौन ?क्या मेरी नियति? क्या मेरी जिंदगी ?क्या मेरा शून्य ? मेरे जीवन का यह पड़ाव, अकेलापन, हादसे की त्रासदी और अभिशप्त मैं। जीवन भर गलत मूल्यों के खिलाफ कलम चलाने की मेरी पीड़ित आकांक्षा । लेकिन कहते हैं न कि ईश्वर एक द्वार बंद करता है तो दूसरा खोल भी देता है।

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महेंद्र कार्तिकेय जी ने मॉरिशस चलने का न्योता दिया। वे 17 से 23 अक्टूबर 20004 तक अपनी संस्था समकालीन साहित्य सम्मेलन के 24 वें अधिवेशन के लिए भारत से 35 पत्रकारों, साहित्यकारों का दल लेकर जा रहे थे। पासपोर्ट बनवाने की जद्दोजहद शुरू हुई और मेरी पहली विदेश यात्रा की उड़ान ने मुझे मेरे तमाम गुदगुदे एहसास सहित राजधानी पोर्ट लुइस के सर शिवसागर रामगुलाम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पहुँचाया।

मॉरीशस अपने द्वीप की दहलीज पर पांव रखने वाले मेहमान को गले लगाता है और बुजुर्ग की तरह आशीर्वाद देता है और क्यों न आशीर्वाद दे आखिर उसे बसाया भी तो भारतीयों ने है। भले ही वे गिरमिटिया मजदूर कहलाए पर निर्जन पथरीले द्वीप के पत्थरों के नीचे से सोना उन्हीं ने निकाला है और अंग्रेजी हुकूमत का खजाना भरा है । चाँद की आँख से झरे इस द्वीप में बिताए 7 दिन अविस्मरणीय थे। विभिन्न शहरों और स्थलों के पर्यटन के साथ ही अधिवेशन में प्रवासी लेखकों से मिलना बहुत आनंददायक था । राजेंद्र अरुण, अजामिल, माताबदल, चिंतामणि, अभिमन्यु अनत, जनार्दन, हेमराज, रामदेव धुरंधर, राज हीरामन, रेणुका, हरिनारायण जैसे लेखकों के साथ हर शाम रचनाधर्मिता पर बहस चर्चा में गुजरी । नवभारत टाइम्स के लिए मैंने अभिमन्यु अनत का साक्षात्कार भी लिया । यह द्वीप ज्वालामुखी के गर्भ से निकला ऐसा द्वीप है जो बरसों वीरान, दुनिया से अलग-थलग रहा।

1505 में एक पुर्तगाली नाविक समुद्र के रास्ते मॉरीशस के तट पर जब आया तो यहाँ की प्राकृतिक समृद्धि देख दंग रह गया| दूर-दूर तक न आदम न आदमजात.....लेकिन उपजाऊ जमीन, खुशगवार मौसम, समुद्रतट और स्वच्छ समुद्री हवाएँ, पर्यावरण ने उसका मन मोह लिया और उसने इस द्वीप को अपने राजा को नजराने के रूप में दे दिया| अफ्रीका और भारत में पैदा होने वाले फल, फूल, पक्षियों और मछलियों का भंडार था यहाँ| इन खासियतों की वजह से यह द्वीप पश्चिमी देशों को लुभाने लगा|पुर्तगालियों से हॉलैंड के डच लोगों ने इसे छीना और १५९८ से १७१२ ईस्वी तक यहाँ राज किया| १७१५ से १८१० तक फ्रांसीसी इसके शासक रहे और फिर पेरिस संधि के अंतर्गत मॉरिशस १८१४ से अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गया|उस समय तक अंग्रेज़ों का विश्व के कई देशों में शासन स्थापित हो चुका था|भारत तो उसका गुलाम था ही लिहाज़ा सूखे की चपेट से गुज़र रहे बिहार के किसानों मज़दूरों को सब्ज़बाग दिखाकर मॉरिशस लाया गया.....अधनंगे, पिचके पेट के बिहारियों ने जिनके हाथ में बस रामचरितमानस की गुटका भर थी.....खाली विस्मित आँखों से मॉरिशस की

धरती को निहारा..... अंग्रेज़ों ने इन्हें नाम दिया गिरमिटिया|कोड़ों की मार, भूखे पेट सुबह से शाम तक जानवरों की तरह काम करते इन बिहारियों की पत्नियाँ, बहनें इनसे दूर दूसरी जगह काम पर लगाईं जाती थी ताकि वे अंग्रेज़ों की हवस शांत कर सकें|चाँदकी आँख से झरे इस द्वीप में ऐसा जुल्म बरसों चला है और तब जाकर मॉरिशस सजा सँवरा है| रूह काँप गई इस ऐतिहासिक तस्वीर से| धन्य है मेरे देश के वे किसान, मज़दूर.....मेरे पुरखों के खून से उपजी मॉरिशस की मिट्टी को माथे से लगाने को मन तड़प उठा|

मॉरीशस से विदाई के वे चंद घंटे। जब मैं विदा ले रही थी होटल के रिसेप्शन के कर्मचारियों से, रसोइयों, वेटरों से, हेड वेटर ने मुझे ढेर सारी लोंग इलाइची और जैतून का अचार भेंट किया। एयरपोर्ट पहुँचे तो ध्यान आया कि मैं मॉरीशस की करेंसी को डॉलर में कन्वर्ट कराना भूल गई थी। सामने ही फोरेक्स बैंक था। पर मैं कस्टम की जांच से गुजर चुकी थी तो बाहर निकलना मुश्किल था । तभी एयरपोर्ट के सफेद शर्ट, नीली पेंट, नीली टाई वाले कर्मचारी ने मदद की। वह मेरा पासपोर्ट और करेंसी लेकर दौड़ता हुआ गया और लौटकर डॉलर हाथ में थमाए

" आप तो श्रीवास्तव हैं, अमिताभ बच्चन की कास्ट की। आपको जय हिंद । भारत को जय हिंद । "

जब तक मैं सिक्योरिटी चेकिंग गेट के अंदर दाखिल नहीं हो गई वह हाथ हिलाता रहा ।

मेरी दूसरी विदेश यात्रा योरोप के लिए थी। जो 2 जून से 25 जून 2005 तक की नौ देशों की थी। मेरे साथ 18 प्रतिनिधि सदस्यों का दल था। जर्मनी के फ्रेंकफर्ट शहर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे में इमीग्रेशन के दौरान जर्मन अधिकारी ने अंग्रेजी में पूछा- ‘आप लेखिका हैं? इंडिया से? किस विषय पर लिखती हैं? यहां आपको किसी तरह की मदद चाहिए तो यह रहा मेरा कार्ड। ’ मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी थी। अपने लेखिका होने पर गर्व तो हुआ ही साथ ही यह एहसास भी कि जर्मनी में लेखकों की कितनी कद्र है फिर चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो। जर्मनी ने संस्कृत भाषा को विश्व मंच पर लाने में अहम भूमिका निबाही है।

विदेश यात्राओं का सिलसिला अब तक जारी है और मेरी यादों में दर्ज अब तक के 26 देश कलमबद्ध हो दो यात्रा संस्मरणों की पुस्तक में संग्रहित हैं। नमन प्रकाशन दिल्ली से 2013 में प्रकाशित 18 देशों मॉरीशस, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान, थाईलैंड, उज्बेकिस्तान और यूरोप के देश जर्मनी, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रिया, इटली, फ्रांस, बेल्जियम, हॉलैंड, रोम स्कॉटलैंड, इंग्लैंड के यात्रा संस्मरण हैं दूसरी पुस्तक किताबगंज से वर्ष 2020 में प्रकाशित हुई ।

"पथिक तुम फिर आना "जिसमें कंबोडिया, वियतनाम, श्रीलंका, भूटान, दुबई, इजिप्ट और रूस के संस्मरण हैं। मैंने अपनी आँखों के कैमरे में इन सभी देशों को कैद कर लिया। फिर उन्हें संवेदना के तारों से एक-एक करके पिरोती चली गई। मैं उन यादों के संग हमसफ़र की तरह रही।

अम्मा कहती थीं इसके पांवों में चक्र है एक जगह टिकती ही नहीं ।

अध्यापन के दौरान पूरा भारत तो कॉलेज और स्कूल के टूर करते हुए देख ही लिया था। उसके बाद 2004 से विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ । चीनी यात्री फाह्यान व्हेन सांग आदि की एक बड़ी भूमिका रही है सांस्कृतिक संबंधों को अपनी यात्राओं से प्रगाढ़ करने की । महात्मा बुद्ध की धार्मिक यात्राओं ने कई देशों को बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित किया। बौद्ध धर्म को मानने वाले दुनिया के 18 देश हैं। डॉ कोटनीस, डॉ सुनायात्सेन, सिल्क रूट के सर्जक, व्यापारी सभी यात्राओं के द्वारा ही व्यापारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संबंधों को अन्य देशों में बढ़ाते रहे। लेकिन मेरी यात्राएँ साहित्यिक थीं और मैं विश्व स्तर पर हिंदी के लिए कार्यरत थी। मेरे लिए दुनिया को देखना आवश्यक भी था क्योंकि मैं लेखिका हूँ और जब तक दुनिया की नब्ज नहीं पहचानूँगी लिखूंगी क्या? मैं जहाँ-जहाँ गई वहाँ की ग्रामीण संस्कृति को मैंने करीब से देखा क्योंकि गाँव ही है जहाँ देश की संस्कृति जीवित रहती है । मेरे लिए यह अनुभव आश्चर्यजनक थे। प्रकृति तो है ही रहस्यमय। सागर नदियाँ, पर्वत, मैदान, ज्वालामुखी, झीलें, ग्लेशियर, द्वीप कितना कुछ रहस्यों से भरा, अनजाना, अनचीन्हा, दुर्लभ, दुर्गम । बड़ा खतरनाक होता है इनके प्रति आदिम सम्मोहन और वह सम्मोहन मैंने अपने में पाया। मैंने दुर्गम रास्तों पर जाने का खतरा भी उठाया। घने जंगलों में दुर्लभ पक्षियों, जानवरों को करीब से देखा । आदिवासियों के संग रोमांचक समय गुजारा और ऐसा सब करते हुए मैंने पाया कि मुझे यायावरी का नशा सा चढ़ गया है। तो मैंने अपना अलग घुमक्कड़ी हिसाब किताब अपने जहन में बैठा लिया। जहाँ भी जाती हूँ एक छोटा सा सूटकेस, उतना ही वजनी जिसे मैं खुद उठा सकूँ। मोबाइल, कैमरा, दूरबीन, और नोटबुक जिसमें हर दिन की घटना रात को सोने से पहले लिख लेती हूँ। इस यात्रा शैली में मेरे साथी विश्व मैत्री मंच के सदस्य रहे जिनके साथ मेरी यात्रा का आनंद दुगना हो गया। मैं इस बात से चकित भी और गदगद भी रही कि भगवान कृष्ण हर देश में हर जगह मिले मुझे । क्या लीला है कृष्ण की। हर देश में उनके मंदिर उनके अनुयायी, भजन, रथयात्रा और सड़कों पर हरे रामा हरे कृष्णा का संकीर्तन करते ढोल मंजीरे बजाते भक्तगण। कृष्ण ने सरहदें मिटाने में बड़ी भूमिका अदा की है।

इन यात्राओं में प्रमुखता से मेरे साथ रहा अंतरराष्ट्रीय पत्रकार मित्रता संघ जिसकी 10 साल तक मैं मनोनीत सदस्य रही। जिसने मुझे 18 देशों में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए प्रतिनिधि के तौर पर भेजा। बाकी के 4 देश मैंने अपनी संस्था विश्व मैत्री मंच के साहित्यकारों के साथ देखे। यह सारे यात्रा संस्मरण वागर्थ, शब्दयोग, पुष्पगंधा, सृजन संदर्भ, अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, सृजनलोक, पाखी, संबोधन, शीराज़ा, मंतव्य, नया ज्ञानोदय, कथादेश आदि में जब प्रकाशित हुए तो बेहद चर्चित, लोकप्रिय हुए । इन संस्मरणों ने एक बड़ा पाठक वर्ग मुझे दिया। मेरी लेखनी के लिए इससे बढ़िया उपहार क्या हो सकता है? यात्रा करते हुए बूंद भर प्रयास दुनिया को जानने का और दृढ़ संकल्प है उसे और अधिक जानने का। देखती हूँ भविष्य और कहाँ कहाँ ले जाता है।

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