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देह की दहलीज पर - 17

साझा उपन्यास

देह की दहलीज पर

संपादक कविता वर्मा

लेखिकाएँ

कविता वर्मा

वंदना वाजपेयी

रीता गुप्ता

वंदना गुप्ता

मानसी वर्मा

कथाकड़ी -17

कथाकड़ी 17 अब तक आपने पढ़ा :- मुकुल की उपेक्षा से कामिनी समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है ? वहीं नीलम मीनोपॉज के लक्षणों से परेशान है। एक अरोरा अंकल आंटी हैं जो इस उम्र में भी एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं। मुकुल अपनी अक्षमता पर खुद चिंतित है वह समझ नहीं पा रहा है कि उसके साथ ऐसा क्या हो रहा है ? सुयोग अपनी पत्नी प्रिया से दूर रहता है एक शाम उसकी मुलाकात शालिनी से होती है जो सामने वाले फ्लैट में रहती है। उनकी मुलाकातें बढ़ती जाती हैं और उन्हें एक दूसरे का साथ अच्छा लगता है। वरुण भी शालिनी के साथ बातचीत करता है। कामिनी का मुकुल को लेकर शक गहरा होता जाता है रात में मुकुल अकेले में अपनी अक्षमता को लेकर चिंतित होता है समाधान सामने होते हुए भी आसान नहीं है। अरोरा आंटी की कहानी सुन कामिनी सोच में डूब जाती है तभी उसकी मुलाकात सुयोग से होती है और वह वह उसके आकर्षण में बंध जाती है। अतृप्त कामिनी फंतासी में किसी को अनुभव करती है लेकिन अंत में हताश होती है। शालिनी अपने अधूरे सपनों से उदास है। कामिनी की सासु माँ उसे समझाने की कोशिश करती हैं लेकिन समस्या उलटी है जान हैरान हो जाती हैं। नीलम के ऑपरेशन की खबर से राकेश चिंता में आ जाता है वह अपने जीवन में नीलम की उपस्थिति शिद्दत से महसूस करता है।

अब आगे

बाहर हलकी बूँदा –बाँदी हो रही थी । बरसात कामिनी को हमेशा से पसंद रही है । और बारिश में भीगना तो उफ़ !! कहने ही क्या । अपनी उम्र को मात देते हुए एक नन्ही बच्ची जो मन की सात परतों में छुपी होती, बारिश के परदे का बहाना लेकर निकल आती और अपने साथ मुकुल को भी घसीट लेती । अभी साल –दो साल पहले तक कोई बरसात ऐसी नहीं जाती थी जिसमें वो और मुकुल भीग कर नहाते ना हों । भीगे बदन से चिपके हुए कपड़े और डी.जे लगा कर डांस ...हल्के हुए तन मन पर वो रात कुछ ज्यादा ही रूमानी होकर बरसती उन दोनों पर ।कामिनी ने बारिश की बूंदों को हथेली पसार कर महसूस किया पर एक हुक सी भर आई मन में । आँखों की रिमझिम को रोकने के लिए उसने अपने लकी चार्म अंकल- आंटी की बालकनी पर नज़र दौड़ाई । उसे उम्मीद थी चिर युवा दम्पत्ति इस बारिश में वहाँ जरूर बैठे होंगे । पर बालकनी सूनी पड़ी थी । कामिनी को ध्यान आया कि वो दोनों तो पिछले दो तीन दिनों से दिखाई ही नहीं दिए हैं । किसी अनहोनी की आशंका से कामिनी का दिल तेज –तेज धडकने लगा । वो सासू माँ से कह उनके घर की तरफ तेजी से दौड़ पड़ी और सासू माँ की, “अरे छाता तो लेती जा की आवाज़ को अनसुना कर दिया ।

सीधे डोर बेल बजाई । दरवाजा आंटी ने ही खोला । चेहरे पर हल्की सी उदासी ने उसे परेशान कर दिया । “क्या हुआ आंटी? परेशान लग रहीं हैं । सब ठीक तो है?”

आंटी ने आँखों से “हाँ” कहते हुए कहा “क्या बताऊँ बेटा तीन दिन से अंकल बीमार हैं । ब्लड प्रेशर तो पहले ही हाई है । उस दिन मैं रोकती रही पर तरबूज ज्यादा खा लिए थे, काला नमक वाला मसाला लगा कर । वो भी फ्रिज से निकाल कर । फिर जो बुखार चढ़ा और दस्त लगे तो पूछो मत । मैं तो घबरा ही गयी थी ।पर तुम सब आस –पड़ोस वालों का बड़ा आसरा है ।”

“अरे, कौन है ? किससे शिकायत कर रही हो मेरी” अंदर से अंकल की आवाज़ आई ।

“कामिनी बिटिया आई है । आप का हाल –चाल लेने । अब शरारत करेंगे तो शिकायत तो करनी ही पड़ेगी” आंटी की आवाज़ में मिश्री से घुल गयी ।

“कामिनी, इधर आओ बेटा , पूरा मुकदमा सुनना, केवल एक पक्ष की सुन कर मत जाना”अंकल ने कामिनी को अपने पास बुलाते हुए कहा ।

कामिनी आंटी के साथ बेड रूम में चली गयी । अंकल कमजोर तो लग रहे थे पर चेहरे पर वही शरारती अंदाज था । आंटी को छेड़ते हुए बोले, “तुमने देखा नहीं कामिनी, ये मोटे –मोटे आँसू थे तुम्हारी आंटी की आँखों में ।उस रात तो मेरे पास से हिली भी नहीं । अब जिसको इतने प्यार से तीमारदारी करने वाला मिले उसे कभी ना कभी बीमार पड़ना ही चाहिए । कसम से मजा आ गया इन तीन दिनों में ...वरना मुझे न पता था कि ज्यादा तरबूज मुझे सूट नहीं करता ।“

“आप भी न बस रहने ही दीजिये” आंटी ने जबाबी तान मिलाई ।

उन लव बर्ड्स को एकांत देने की गरज से कामिनी ने कहा, “आंटी, मैं सब के लिए चाय बना कर लाती हूँ”

“ये ठीक रहेगा” दोनों ने सहमति से सर हिलाया ।

तीन कप चाय के साथ एक प्लेट में थोड़ा सा नमकीन रख कर कामिनी जब लौटी तो अंकल आंटी एक दूसरे का हाथ हाथों में लिए बैठे थे । उसने मुस्कुरा कर ट्रे साइड टेबल पर रख दी । चाय का कप उठाने ही वाली थी कि डोर बेल बजी । इस समय कौन होगा सोचते हुए उसने दरवाजा खोला । सामने सुयोग खड़ा था, बारिश से तर –बतर । एक पल को कामिनी संज्ञा शून्य सी खडी रही । “अंकल की दवाई लाया था, क्या मैं अंदर आ सकता हूँ” उस निस्तब्धता को सुयोग ने ही तोड़ा ।

“जी, जी, बिलकुल अंदर आइये न ! कामिनी ने अचकचाते हुए बेड रूम की तरफ इशारा कर दिया ।

“सुयोग आया है क्या ? मैंने दवाई लाने को कहा था” अंदर से आंटी का स्वर हवा के साथ तैरता हुआ उसके कानों से टकराया जरूर पर जैसे उसने सुना ही नहीं वो तो दरवाजे की सिटकनी चढ़ा कर सुयोग के पीछे ऐसे चली जैसी नागिन बीन की धुन पर मदहोश हो खिंची चली आती है ।

“अरे तुम तो पूरा भीग गए, कामिनी बेटा जरा इसे टॉवल तो दो” आंटी ने कामिनी से कहा ।

“डियर आंटी ये जवान उम्र है, कोई बताशा थोड़ी न हूँ जो गल जाउंगा” सुयोग का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि “आक क छी” बिन बुलाये मेहमान की तरह जोर से छींकें आना शुरू हो गयीं ।

“लो, अब बोलो, अब तो लोगे न टॉवल, और हाँ ये टी शर्ट भी बदल लो, अंकल की पहन लेना, बेटा कामिनी ...” आंटी का वाक्य पूरा होने से पहले ही कामिनी ने उसे टॉवल पकड़ा दी । सुयोग ने बाल पोछते हुए एक झटके से टी शर्ट उतार दी । कामिनी हतप्रभ सी देखती रह गयी...आह, वो कसरती बदन, वजन न एक किलो ज्यादा न एक किलो कम, मजबूत डोले शोले , बाहों में उभरी हुई मछलियाँ,और जैसे त्वचा की सरहद को फाड़ कर निकलने को आतुर सिक्स पैक एब्स । उसे लगा जैसे उसके सामने कोई अपरिचित पुरुष नहीं साक्षत काम देव खड़े हैं और वो बाणों से बिंधति जा रही है । आँखें थी हटने का नाम नहीं ले रहीं थीं । आखेटक का नेत्रों से आखेट हो रहा था । भला युगों युगों का शिकारी पुरुष अपने तन पर आसक्त इन नज़रों को कैसे न समझ पाता । काश कि समय रुक जाता पर स्त्रियों का सिक्स्थ सेन्स बहुत मजबूत होता है । उस मदहोशी के आलम में भी उसने कामिनी की आत्मा के द्वार खटखटा कर उसे सचेत किया, “ पगली निकल ले यहाँ से वर्ना चार अनुभवी आँखें तेरे अंदर की तीव्र ज्वाला को समझ जायेंगी और उसने नज़रों पर वहीँ विराम लगाते हुए आंटी से कहा, “आंटी अब मैं चलती हूँ । सासू माँ जल्दी खाना खाती हैं।”

“पर ...चाय तो पीती जा”

“नहीं आंटी, ये इनको दे दीजिये, वैसे भी ये बुरी तरह भीग गए हैं” कहते हुए वो दरवाजा भेड़ कर आगे बढ़ ली ।

पाँव मन-मन भर भारी हो रहे थे । कुछ क़दमों की दूरी मीलों लंबी प्रतीत हो रही थी । तन था कि पीछे लौट जाना चाहता था पर मन पांवों को घसीट –घसीट कर आगे बढ़ा रहा था । घर आ कर शावर लेने के लिए वो बाथरूम में घुस गयी । घर के सभी सदस्यों ने उसे अकेले जाते देखा पर वो अकेली गयी कहाँ । बाथ रूम के बाथ टब के उस नितांत अकेलेपन में सुयोग चुपके से उसके साथ आ गया था । यहाँ किसी का कोई पहरा नहीं था, न किसी व्यक्ति का न किसी वस्त्र का । वो उसे मदहोश करता हुआ हर पल उसके करीब आता जा रहा था ...और करीब ...और करीब, यहाँ तक कि उन दोनों में कोई भेद ही नहीं रह गया । कामिनी अपने काल्पनिक साम्राज्य के आनंद में खोयी हुई थी और बाहर से चिंतातुर मुकुल के खटखटाने की आवाज आई, “कामिनी, कामिनी, सब ठीक तो है, बहुत देर लग रही है । एक झटके में कामिनी ने स्वप्न लोक का द्वार बंद कर यथार्थ में प्रवेश किया । स्वप्न की जल बूँदे टॉवल से पोछ जब वो बाहर आई तो मुकुल ने उसके हाथ से टॉवल लेते हुए कहा, “इसे मैं सुखा देता हूँ, तुम खाना लगा दो”

कामिनी ने झटके से मुकुल के हाथों से टाॅवेल छीन ली । नहीं, मैं सुखा देती हूँ । जाने क्यों उसे लगा कि उसकी चोरी पकड़ी न जाए । स्वप्न की कुछ बूँदे यथार्थ की तपती रेत पर गिर कर भस्म न हो जाएँ ....वो उसे समेट लेना चाहती थी, सहेज लेना चाहती थी । बालकनी में जब वो टॉवल सुखा रही थी तो किसी के घर से गाने की आवाज़ आ रही थी, “रिमझिम गिरे सावन सुलग –सुलग जाए मन, भीगे आज इस मौसम में ...” वो देर तक बालकनी में खड़ी बारिश देखती रही, देखती रही और मुकुल उसे बेड रूम में बैठ कर अकेले मुस्कुराते गुनगुनाते खुद से लजाते हुए देख रहा था । उसे कामिनी को खुश देखकर खुश होना चाहिए था पर वो हतप्रभ था । कोई संभावित आशंका उसे झकझोर रही थी और वो निरुपाय सा बस साक्षी बनने को विवश था ।

करीब घंटे डेढ़-घंटे बाद कामिनी ने अपनी दुनिया से निकल कर बेड रूम में प्रवेश किया । मुकुल को देखकर उसने कहा, “अरे आप यहाँ बैठे हैं । क्या टाइम हो गया । चलिए खाना खा लिया जाए ।”

“देर हो गयी है । बच्चों ने खाना खा लिया है । मैंने माँ के लिए दूध रोटी दे दी है और मैंने दाल चावल खा लिया है । तुम भी खा लो।”मुकुल ने झूठ बोला जबकि उसने खाना नहीं खाया था । भूख मर सी गयी थी ।

“आप ने मुझे बुलाया क्यों नहीं” कामिनी के स्वर में निराशा थी ।

“बुलाया तो तुमने भी मुझे नहीं कामिनी, अकेले ही बारिश देखती रहीं । मुझे लगा तुम खुश हो और तुम्हें खुश देखकर मुझे बहुत संतोष हुआ । जाओ खाना खा लो ।”

कामिनी के स्वप्न के गुब्बारे में एक पिन चुभ गया और वो फट्ट से फूट गया । “मुझे भूख नहीं है, मैं सोना चाहती हूँ “ कहकर वो लेट गयी । मुकुल भी बत्ती बंद करके लेट गया । दोनों ने आँखें बंद कर लीं । अगल –बगल लेटे दो लोग खुद को धिक्कारने में लगे थे । कामिनी की बंद आँखों के सामने इस समय सुयोग का नहीं मुकुल का चेहरा था । मासूम बच्चे सा मुकुल । इतने सालों से वो हर कदम पर उसका साथ निभाता आया है पर... मन अपराध बोध से भर गया । तभी मन ने पासा पलटा और वो अपने कल्पना लोक के पक्ष में तरह –तरह की दलीलें देने लगा । शायद वो उसे मना भी लेता तभी उसने आँखें खोलीं बगल में मुकुल आँखें मींचे लेटा था । मन के तर्कों को ध्वस्त करते हुए जी में आया कि मुकुल को जगा कर उसके सीने से लिपट कर जोर –जोर से रोये । क्यों ? ये भी मन तय नहीं कर सका । उसने करवट बदली, सुयोग फिर सामने खड़ा था ।इतना करीब कि उसकी गर्म साँसों को महसूस कर पा रही थी । मन की धिक्कार पर तन की पुकार फिर हावी होने लगी । कामिनी ने चादर मुँह के ऊपर तान कर एक पर्दा बनाने की असफल कोशिश की ।

मुकुल की बंद पलकों के नीचे कामिनी की दो स्मृतियाँ एक के बाद एक किसी चलचित्र की तरह आ रहीं थीं । कुछ दिन पहले की झगडती हुई कामिनी और आज अपने आप में खुश संतुष्ट गुनगुनाती, मुस्कुराती कामिनी । कुछ तो है जिसका सिरा वो पकड़ नहीं पा रहा है । ये रहस्य उसे उसकी अक्षमता की याद दिलाने लगा । बंद आँखों के कोनों पर दो जल बिंदु चमक उठे । उसने धीरे से करवट ली और एक दरिया नासिका से होता हुआ गालों के रास्ते कानों में पहुँच शोर मचाने लगा, “इससे पहले की देर हो जाए, अपनी जिन्दगी को अपनी बाँहों में फिर से ले ले । बलखाती नदी सी कामिनी के लिए उसे फिर से सागर बनना ही होगा । कुछ दिन पहले इन्टरनेट पर कुछ सर्च करने के दौरान ‘डॉ .प्रकाश” के क्लिनिक का विज्ञापन उसकी आँखों के सामने बत्ती सा जलने बुझने लगा । उसने मन कड़ा करते हुए फैसला लिया कि वो कामिनी को बिना बताये डॉ .प्रकाश से मिलेगा । फिर कामिनी को लेकर किसी ट्रिप पर जाएगा और अपने जीवन के बिखरते सूत्रों को समेट लेगा ।

दोनों एक ही बिस्तर पर अलग –अलग दिशा में करवट करे हुए अपनी अपनी उलझन को सुलझाने की कोशिश करते हुए सो गए । आँख सुबह नीलम के फोन से खुली । “हेलो” उनींदी आवाज़ में कामिनी ने कहा ।

“मेरा कल ऑपरेशन है । आज एडमिट होना है क्या कल तू मेरे साथ रहेगी । राकेश भी अकेले क्या –क्या मेनेज करेंगे उनकी चचेरी बहन को बुलाया था लेकिन वह भी किसी परेशानी में फँसी है ।”

“बिलकुल –बिलकुल तू चिंता मत कर । मैं आज ही आती हूँ तेरे पास । खाना मैं बना लाऊंगी । राकेश जी को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है” कामिनी ने नीलम को तसल्ली देते हुए कहा ।

एक झटके से बिस्तर छोड़ कर कामिनी बाहर आ गयी । बाहर मुकुल किसी ट्रिप को प्लान कर रहा था । कामिनी ने नीलम की बात बताते हुए फिलहाल ट्रिप पर जाने से इनकार कर दिया । नीलम की तबियत के बारे में सुन मुकुल भी थोडा परेशान हुआ पर उसने कामिनी का हाथ पकड कर कहा, “तुम घर की चिंता मत करो, निश्चिन्त हो कर नीलम को देखो । मैं यहाँ हूँ न सबको देखने के लिए ।”

मुकुल का इस तरह हाथ थाम कर उसे घर की जिम्मेदारियों से मुक्त कर देना उसके अंतर्मन को कहीं छू गया । ऐसी सुरक्षा, ऐसा विश्वास जीवन साथी ही दे सकता है ।

दिन भर वो नीलम के साथ ही रही । नीलम को बार –बार जरूरी टेस्ट के लिए ले जाया जा रहा था । राकेश साथ –साथ दौड़ रहा था । वो सबके खाने –पीने का ध्यान रख रही थी । नीलम ने जो राकेश की छवि उसके मन में अंकित की थी उसके विपरीत राकेश के प्रेम का प्याला बार बार छलका जा रहा था । प्रेम का अमूर्त रूप, प्रेम का ईश्वरीय रूप, प्रेम को खो देने के ख्याल से डरा हुआ । कितनी बार तो उसे राकेश को संभालना पड़ा था । भय बार –बार उसकी मानसिक दृढ़ता को धत्ता बताते हुए उसकी पेशानी पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता । कभी –कभी नीलम भी झिड़कती, “कुछ नहीं होगा मुझे, अभी तो सौ साल तक आपको ऐसे ही परेशान करना है।” और राकेश मुस्कुरा कर थोडा सर झुका का राजेश खन्ना की तरह बड़े अंदाज से कहता, “जहे नसीब”। ऑपरेशन अगले दिन सुबह था कामिनी रात भर हॉस्पिटल में ही रुकी।

नीलम को हाथ हिला हिला कर ख़ुशी से ओ.टी. में भेजने का अभिनय करने वाला राकेश उसके अंदर जाते ही नन्हें शिशु की तरह बिलखने लगा, “कामिनी जी मेरी जान बसती है नीलम में ...अगर उसे कुछ हो गया तो मैं भी नहीं जी पाउँगा । मेरी नीलम अच्छी तो हो जायेगी ना?”

“बिलकुल आप का प्रेम उसे हर खतरे से खींच लाएगा।” कामिनी देर तक उसे तसल्ली देते रही ।

जब राकेश थोड़ा संयत हुआ तो वो खुद उठ कर खिड़की के पास खड़ी हो गयी । उसका खुद का मन भारी हो रहा था । हॉस्पिटल के कॉरिडोर में बाहर की तरह एक के बाद एक कई खिड़कियाँ खुलती थीं । हर खिड़की से बाहर का विशाल बगीचा दिखाई देता था । कामिनी भी एक खिड़की से लग कर खड़ी हो गयी और बाहर देखने लगी ...यही तो है जीवन का उपवन , जीवन का आनंद , जिसको देखने के लिए कितनी सारी खिड़कियाँ है । एक खिड़की के बंद होने से भी और खिड़कियाँ तो खुली रहतीं हैं । उपवन का दृश्य और आनंद तो बाधित नहीं होता । आंटी –अंकल कितना आनंद ले रहे हैं जीवन का । उन्होंने एक खिड़की का बंद होना स्वीकार कर लिया है । राकेश जी भी नीलम की एक आधी बंद खिड़की के बावजूद कितना प्रेम करते हैं उससे । मुकुल भी तो उससे बहुत प्रेम करता है, बस एक खिड़की ...फिर वो क्यों भटक रही है इस मृग तृष्णा में ...क्यों कल्पना लोक में किसी प्रेत छाया सी भटकती फिरती है ।

अचानक उसके ह्रदय में मुकुल की पूर्व स्मृतियाँ हिलोरे मारने लगीं । उसे लगा कि हर खिड़की से मुकुल का चेहरा दिखाई दे रहा है । वो चाहत के समुन्द्र में डूबने लगी ।

जहाँ दूर –दूर तक सुयोग का कोई नामों- निशान भी नहीं था ।

वंदना बाजपेयी

क्रमशः

वंदना बाजपेयी

शिक्षा : M.Sc , B.Ed (कानपुर विश्वविद्ध्यालय )

सम्प्रति : संस्थापक व् प्रधान संपादक atootbandhann.com

दैनिक समाचारपत्र “सच का हौसला “में फीचर एडिटर, मासिक पत्रिका “अटूट बंधन”में एक्सिक्यूटिव एडिटर का सफ़र तय करने के बाद www.atootbandhann.com का संचालन

कलम की यात्रा : देश के अनेकों प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं में कहानी, कवितायें, लेख, व्यंग आदि प्रकाशित । कुछ कहानियों कविताओं का नेपाली , पंजाबी, उर्दू में अनुवाद ,महिला स्वास्थ्य पर कविता का मंडी हाउस में नाट्य मंचन ।

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