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आखिरी गंतव्य


शान्त चित्त और सधे हुये कदमों से वो रेलवे स्टेशन की तरफ़ बढ़ रही थी। अपनी उलझनों के खत्म होने की संभावना और संतोष की छाया, उसके चेहरे की गोरी रंगत को और निखार रही थी उसकी आँखों में एक चमक और चेहरे पर हल्की झुर्रियों की लकीरें ,उसके अनुभव और धैर्य की परिभाषा पढ़ रही थीं । चौड़े गोल्डेन बार्डर की क्रीम कलर की साड़ी में पचपन वर्षीय समिधा सूरज की किरणों सी प्रतीत होती थी ।


रेलवे स्टेशन पर भीड़ भाड़ में वो अलग ही दिख रही थी ।एक खाली बैंच पर बैठकर वो अपनी ट्रेन का इन्तजार करने लगी

अभी सुबह के सात बजे थे और उसकी ट्रेन को आने में करीब पौन घण्टा बाकी था । जब वो घर से चली सब सो रहे थे वो चुपचाप ही बिना किसी को कहे, अपने एक सूटकेस और हैण्ड बैग के साथ निकल आई थी । बंद मुट्ठी पर चेहरा टिकाये वो आँखें बन्द कर के अपनी जिन्दगी के बीते हिस्से में चली गयी जहाँ उसे याद हो आया कि कल बीती रात किस तरह असीम ने उसे उसकी जिन्दगी का फ़लसफ़ा थमा दिया कि उसकी गलतियों और खुशियों की सजा की मियाद पूरी हुई

असीम के प्यार की गहराई में सब खोकर वो खुश थी दो बेटे और एक बेटी उसकी जीवन की जमा पूंजी थे । असीम से शादी होकर वो उसकी ही आँखों से दुनियाँ देखने लगी थी उसका अपना रूप रंग , ख्याल और हर ख्वाब जैसे असीम की दो आँखों से होकर उसकी पलकों पर दस्तक देते थे । उसने एक नदी की तरह अपने अन्दर समुद्र का खारापन सोख लिया था और असीम का उसको समर्पित प्रेम भी आईने की तरह चमकदार था

पर फिर भी जैसे कई बार दोनों मूक बधिर की तरह साथ समय बिताते ,दीवार पर टंगी वक्त की सुइयों से नजर बचाकर एक दूसरे में झाँकने की कोशिश करते और बातों की झिर्रियों से हल्की ठण्डक का एहसास पा कर फिर एक दूसरे में वो नज़रें इस तरह समा जातीं जैसे पसरी हुई चुप्पी एक भ्रम मात्र थी , बिना इस बात का एहसास किये कि आँखों से देखा हुआ ही पूर्ण सत्य नहीं होता कई दफ़ा आसपास बिखरी परछाईंयों में भी कुछ कुछ छिप जाता है जो नज़र की छुअन से छूट जाता है और ये जरा सी लापरवाही एक बहुत बारीक रेखा हृदय पर खींचने में सक्षम होती है ।


थोड़ी गहरी नींद का साथ होते ही उसे असीम का थोड़े सख्त लहजे के साथ सवाल पूछते हुये चेहरा दिखा ..."बोलो समिधा!! आखिर उसने तुमको एक रात में ऐसा क्या दे दिया जो मेरे साथ होकर भी तुम मेरी नहीं और उसके साथ न होकर भी उसके साथ चली गयीं । पूर्णतः का कोई मापदंड नहीं ,कोई चिन्ह नहीं समिधा और इच्छाओं की कोई थाह नहीं ..

तुम्हारी अपनी सीमाऐं हैं या नहीं ..या सारे बाँध तोड़ कर बह जाना चाहती हो ? "


समिधा चुप ही रही बस इतना बोली कि

"असीम !! वो अपरिमित है और खाली जगह भरने में सक्षम "और सोती हुई समिधा के चेहरे पर अचानक हल्की मुस्कुराहट तैर गयी जैसे उस पर किसी ख्वाब की नज़र पड़ गयी हो जिसको वो अपनी आँखों में बन्द कर होंठो से पी जाना चाहती हो....तभी रेलवे स्टेशन पर हलचल हुई समिधा की ट्रेन प्लेटफार्म पर आ चुकी थी समिधा अपना सामान लेकर डिब्बे की ओर बढ़ गयी ।


समिधा अपनी सीट पर बैठ गयी अगल बगल कुछ अपरिचित चेहरे थे जो अपनी उधेड़बुन में लगे थे। इस शोर का उसकी खामोशी को साथ मिला तो समिधा को थोड़ा राहत महसूस हुई।


"अपरिमित" हाँ यही नाम था जो करीब बीस साल पहले एक जलजले की तरह उसकी जिन्दगी में दाखिल हुआ था..अपरिमित,37 वर्षीय अविवाहित , हंसमुख स्वभाव के व्यक्ति थे जो वनविभाग संरक्षक के पद पर स्थानांतरित होकर आए थे और समिधा के बाजू वाले फ्लैट में ही शिफ्ट हुये थे और चायपत्ती और शक्कर की उधारी से शुरू होकर उनकी बातचीत दोस्ती फिर प्यार तक पहुँच गयी थी । दोनों ये समझते थे कि ये गलत है पर एकदूसरे का साथ जैसे उनकी दिनचर्या का जरूरी अंग बन गया था और वो एकदूसरे के पूरक। इस साथ में ना कोई वादा था ना कसम ना आगे की कोई जिम्मेवारी ...ये साथ एक ठण्डी हवा के झोंके की तरह दोनों को छूकर गुजर गया ।


अपरिमित के तबादले के बाद अकेलेपन की घुटन और असीम के साथ छल करने के भाव से समिधा के मन में खुद के लिए घृणा पनपने लगी थी जिससे उसने असीम को सब सचसच बता दिया था काफी तनाव और असीम के अविचल प्रेम ने समिधा को अपना सानिध्य देना स्वीकार किया था

और समिधा ने अपने उत्तरदायित्व को समझते हुये असीम से अपरिमित के साथ जुड़े हर विचार और बातचीत के जरिये को विराम देकर स्वाभिमान बरकरार रखते हुये जीवन को नये सिरे से जीने की ख्वाहिश रखी।


घाव भरने के लिए बीस साल बहुत लम्बा अरसा होता है और कुरेदने के लिए एक क्षण ही बहुत पीड़ादायक ।


अपरिमित ने उसे भरने के लिए पंख दिये थे उसकी सोच को एक आयाम दिया था। उसके और असीम के बीच खाली जगह भरने को अपरिमित की आकृति समर्थ थी ।


दरअसल वो और असीम आदर्श दम्पति की तरह दिखना और होना चाहते थे जिसमें उन्होंने एक मुखौटा लगा लिया था और एकदूसरे के साथ हमेशा खुश दिखने की चाह में उन्होंने अपनी कमजोरियों को साझा करने के बजाय एक दूसरे से छिपा लिया था।

वो भूल गये थे प्रेम अंतहीन है ,ये रूहों का मिलन है जिसमें वास्तविकता ही पारदर्शिता है और चाहे अनचाहे वस्त्रों की जरूरत ही नहीं । और अपरिमित ने समिधा के सामने से असीम की नज़र का आईना हटाकर उसका खुद का यानि समिधा का प्रतिरूप खड़ा किया जिसमें समिधा और भी खूबसूरत और आत्मविश्वासी दिखती थी


"सुनो ना समिधा ..

देखो तो ,तुम खुल कर हँसती हो तो तुम्हारे दाँत अनार के दाने की तरह खुल कर आते हैं और तुम्हारी ये बड़ी बड़ी आँखें जैसे चाँद पर नील नदी में तैरती दो नाव बन जातीं हैं और


इनमें उभरता मेरा अक्स जैसे , जैसे मैं इन कश्तियों का नाविक बन जाता हूँ और जब ये हवायें तुम्हारे बाल चूमतीं हैं तो मैं इनकी खुशबुओं में बँधकर तुम्हारे होंठो की निगरानी करता तुम्हारी ठोढ़ी का तिल बन जाता हूँ । और.. और...


अरे बाबा बस ना ...समिधा चेहरे की लाली छिपाते हुये हँसते हुए बोली


" नहीं समिधा , मैं सचमुच चाहता हूँ कि तुम अपने लिए जियो और खुल कर जियो । मैं तुम्हारा साथ दूंगा ,हालात कितने भी अच्छे या बुरे हों । मेरा यकीन करो "


ये यकीन जो उस चाँदनी रात में अपरिमित ने उसको थमाया था उस पर समिधा ने खरोंच तक ना आने दी ..वक्त और हालात के साथ सब बीत गया । अपरिमित का ट्रांसफर दूसरे प्रदेश में हो गया और समिधा वापस अपनी दुनियाँ में चली गयी थी ।

बीस साल बाद , असीम के रिटायरमेंट की फेयरवेल पार्टी में असीम ने कुछ ज्यादा शराब पी ली और घर वापसी पर समिधा को अपरिमित का नाम लेकर काफी कुछ कहा


समिधा को एहसास हुआ कि अब उसकी खुशियों और गलतियों की सजा की मियाद पूरी हो चुकी है तो उसको अपनी खोज में निकल जाना चाहिए ..अब समय है कि वो अपनी किस्मत के हर अच्छे बुरे कदम के आगे एक कदम अपनी मर्जी का बढ़ाए और अपने आखिरी गंतव्य की ओर प्रस्थान करे ।


सफ़र खत्म हो चला था ट्रेन के झटके के साथ रूकते ही समिधा के चेहरे पर एक आतमविश्वासी मुस्कान तैर गयी और वो अपने सामान के साथ बाहर खुली हवा में साँस भर कर एक नयी उड़ान के लिए तैयार हो गयी ..जो उसकी अपनी पसंद की होगी...

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