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हिमाद्रि - 4


                    हिमाद्रि (4)


कुमुद के दिमाग में आईने के पीछे छिपा दरवाज़ा घूम रहा था। पढ़ी हुई रोमांचकारी कहानियां उसे प्रेरित कर रही थीं कि वह जल्द से जल्द दरवाज़े के रहस्य का पता लगाए। वह जानती थी कि कल रात तक उमेश वापस आ जाएगा। उसके सामने वह दरवाज़े का रहस्य नहीं पता कर पाएगी। दुर्गा बुआ के रहते भी यह नहीं हो सकता था। 
दरअसल कुमुद के दिमाग में चल रहा था कि वह खुद ही इस रहस्य को सामने लाए। जैसा कहानियों के मुख्य किरदार करते थे। कुमुद के व्यक्तित्व का एक और पहलू था। जिससे उसके माता पिता व उमेश सभी अंजान थे। अपने वास्तविक जीवन के साथ वह कल्पना का जीवन भी जीती थी। यह कल्पना लोक रहस्य व रोमांच से भरा था। वह अक्सर साधारण चीज़ों में कुछ अद्भुत तलाशने का प्रयास करती थी। 
उसे अपनी कल्पनाओं की उड़ान के लिए एक सुनहरा मौका मिला था। वह उसे हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। उसने दुर्गा बुआ को उनके क्वार्टर में भेजने का निश्चय किया। डिनर के बाद उसने उनसे अपने क्वार्टर में जाकर सोने को कहा। इस पर बुआ ने कहा कि उमेश ने उसकी अनुपस्थिति में उनसे यहीं सोने को कहा है। कुमुद भी यह बात जानती थी। पर वह बुआ के साथ बड़ी रुखाई से पेश आने लगी। उसने कहा कि वह जानबूझ कर उसकी बात की अनदेखी करती हैं। यह बात बुआ को बुरी लगी। लेकिन उमेश की गैरहाजिरी में वह बात बढ़ाना नहीं चाहती थीं। इसलिए चुपचाप अपने क्वार्टर में चली गईं। 
बुआ ने जाते हुए उससे मेन डोर बंद करने को कहा। कुमुद ने कहा कि वह कर लेगी। किंतु वह बेसमेंट में जाने को उतावली थी। इसी उतावलेपन में वह डोर बंद करना भूल गई। बेसमेंट में प्रकाश की व्यवस्था थी। किंतु वह गुप्त दरवाज़े के पीछे जाना चाहती थी। उसने अपने साथ पावरफुल टॉर्च ले ली। वह सीढ़ियां उतर कर बेसमेंट में गई। वहाँ की लाइट जताई। वह आईने के पास गई। टॉर्च की रौशनी में वह उसके पीछे देखने लगी। उसने देखा कि आईना एक बड़े से हुक के सहारे लटका है। 
कुमुद ने टॉर्च को वहीं पास पड़ी एक रैक पर रख दिया। दोनों हाथों से पूरी ताकत लगा कर वह आईने को हुक से उतारने की कोशिश करने लगी। बड़ी मशक्कत के बाद वह आईने को हुक से उतारने में सफल हो गई। उसने सावधानी से आईना दीवार से सटा कर रख दिया। 
आईना हटते ही दरवाज़ा दिखाई पड़ने लगा। यह दरवाज़ा कोई साढ़े तीन फीट ऊँचा होगा। दरवाज़े की कुंडी चढ़ी थी। एक ताला लगा था। लकड़ी की चौखट पर एक खड़ी और एक बेड़ी लकड़ी की पट्टी लगा कर ईसाइयों के पवित्र क्रॉस की शक्ल दी गई थी। कुमुद आसपास नज़र दौड़ा कर ऐसी चीज़ तलाशने लगी जिससे क्रॉसनुमा पट्टियों को हटा कर ताला तोड़ सके। जिस रैक पर उसने टॉर्च रखी थी उस पर कुछ और सामान भी था। उसने उसमें ढूंढ़ना शुरू किया। उसे वहाँ एक छेनी और हथौड़ी दिखाई पड़ी। 
कुमुद ने छेनी हथौड़ी की सहायता से क्रॉस वाली पट्टियों को हटा दिया। वैसे इसमें बहुत अधिक कठिनाई नहीं आई। क्योंकी दोनों पट्टियां सिर्फ कील की सहायता से दरवाज़े की चौखट पर गड़ी थीं। असली मुश्किल थी दरवाज़े पर लगे ताले को तोड़ने की। कुमुद ने हथौड़ी से ताले पर कई वार किए पर कोई फर्क नहीं पड़ा। 
इतनी मेहनत करने के बाद कुमुद थक गई थी। वह वहीं ज़मीन पर बैठ गई। वह पसीने से तर बतर थी। उसे प्यास भी लग रही थी। किंतु वह पानी पीने के लिए ऊपर जाने को तैयार नहीं थी। उसके दिमाग में केवल ताला कैसे तोड़ा जाए यही बात घूम रही थी। कुछ देर सुस्ताने के बाद वह उठी और ताला तोड़ने का उपाय सोंचने लगी। 
उसने सोंचा हथौड़ी से काम नहीं चलेगा। किसी भारी वस्तु से पूरी ताकत से वार करना पड़ेगा। कुमुद ने फिर इधर उधर नज़र दौड़ाई। इस बार उसकी निगाह कोने में पड़ी एक कुदाल पर गई। वह उसे उठा लाई। कुछ क्षण तक वह खड़ी अपने शरीर की ताकत को संचित करती रही। अपने आपको पूरी तरह से आश्वस्त कर उसने कुदाल उठाई। पूरी ताकत से एक के बाद एक लगातार पांच वार किए। आखिरी वार पर खटाक की आवाज़ हुई। इतनी मेहनत कर कुमुद हांफने लगी थी। पसीने की धार उसके सर से होते हुए पांव तक जा रही थी। लेकिन उसकी आँखों में चमक थी। उसने ताला तोड़ लिया था। 
कुदाल वापस उसी कोने में रख कर उसने टॉर्च उठाई। दरवाज़े की कुंडी खोली। दरवाज़े को धक्का दिया। कई दिनों से बंद होने के कारण वह जाम था। दूसरी बार उसने पूरी शक्ति लगा कर धक्का मारा। दरवाज़ा खुल गया। सीलन का एक भभका उठा और उसके नथुनों में घुस गया। उसने टॉर्च जलाई। घुटनों के बल ज़मीन पर बैठ कर अंदर सरकने लगी।
भीतर जाकर वह खड़ी हो गई। टॉर्च की रौशनी में वह कमरे का मुआयना करने लगी। वह एक छोटी सी कोठरी थी। वहाँ कोई सामान नहीं था। एक कोने में पत्थर का चबूतरा जैसा था। वह उस पर जाकर बैठ गई। कुमुद विचार करने लगी कि इस कोठरी को बेसमेंट में ही मिला लेगी। ताकि सामान रखने की कुछ और जगह बन जाए।
कमरे में उसे कुछ भी रहस्यमई नहीं मिला था। उसकी उत्सुकता समाप्त हो गई थी। वह उठ कर बाहर निकालने लगी। तभी उसने महसूस किया कि जैसे कोई उसके सामने बाधा बन कर खड़ा है। वह ज़ोर लगा कर उसे आगे बढ़ने से रोक रहा है। कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था। किंतु वह उसके स्पर्श को महसूस कर रही थी। उसने मजबूती से कुमुद को पकड़ रखा था। कुमुद भय से कांपने लगी। टार्च छूट कर ज़मीन पर गिर गई। 
कुमुद किसी ताकतवर शैतान की गिरफ्त में थी। उसने कुमुद की दोनों कलाइयों को कस कर पकड़ रखा था। कुमुद को धक्का देकर उसने पत्थर के चबूतरे पर गिरा दिया। कुमुद ने महसूस किया कि वह शैतान वासना से जल रहा है। उसने अपने कपड़ों के भीतर उसके स्पर्श को महसूस किया। कुमुद असहाय सी उसके चंगुल में फंसी थी। वह अदृश्य शैतान उसके शरीर से खेल रहा था। डर कर कुमुद बेहोश हो गई।
कुमुद को जब होश आया तो उसने महसूस किया कि वह शैतान उसे छोड़ चुका था। सारे शरीर में पीड़ा हो रही थी। वह मुश्किल से उठ कर बैठी। ज़मीन पर पड़ी। टार्च जल रही थी। जिसके कारण सामने की दीवार पर रौशनी का एक अर्धवृत्त बना था। बेहोश होने से पहले जो स्पर्श उसने महसूस किया था उसके बारे में सोंच कर वह सिहर उठी। 
कुमुद कुछ देर तक जड़वत बैठी रही। उसे लग रहा था कि वह शैतान पास में ही होगा। एक बार फिर उसे दबोच लेगा। वह भय के मारे हिल भी नहीं रही थी। लेकिन करीब पंद्रह बीस मिनट गुज़रने के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो उसे लगा कि जैसे वह शैतान कहीं चला गया है। 
कुमुद हिम्मत कर उठी। जमीन पर पड़ी टॉर्च उठाई। घुटनों के बल रेंगती कमरे के बाहर आ गई। बाहर आकर उसने कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया। शरीर में बहुत अधिक पीड़ा थी। किंतु वह कोई खतरा नहीं लेना चाहती थी। उसने क्रॉसनुमा पट्टियां उठाईं। उनमें अभी भी कीलें जड़ी थीं। हथौड़ी की मदद से उसने जैसे तैसे फिर वो पट्टियां क्रॉस की शक्ल में चौखट पर जड़ दीं। 
कहानी सुनाते हुए कुमुद की आँखों से आंसू बह रहे थे। वह आगे बोली।
"यह सब करने के बाद मैं अपने कमरे में चली गई। दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। मेरे मन में आया कि बुआ को फोन कररे बुला लूँ। किंतु याद आया कि फोन तो नीचे डाइनिंग टेबल पर ही पड़ा है। उमेश से बात करने के बाद वहीं छोड़ दिया था। फोन लेने नीचे जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। सारी रात मैं मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ती रही।" 
कुमुद चुप हो गई। उसकी आँखों से आंसू बहे जा रहे थे। उमेश बहुत गंभीर हो गया था। दुर्गा बुआ को कुमुद पर जो बीता जान कर बहुत दुख हो रहा था। कुमुद के रूखे व्यवहार के बावजूद उन्होंने सदैव उसे अपनी बहू का दर्ज़ा ही दिया था। वह पछता रही थीं कि उस उन्हें बड़प्पन से काम लेते हुए समझदारी दिखानी चाहिए थी। भले ही कुमुद उनसे कड़वा बोल रही थी। पर उन्हें उमेश के कहे मुताबिक वहीं रहना चाहिए था। क्वार्टर नहीं जाना चाहिए था। 
बुआ उठीं और कुमुद को गले से लगा कर सांत्वना देने लगीं। उमेश जैसे किसी बेहोशी से जागा हो। वह उठ कर डाइनिंग टेबल से एक गिलास पानी लेकर आया। उसने कुमुद को पानी पिलाया। उसके बाद सहारा देकर उसे ऊपर कमरे में ले गया।
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