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आ लौट चलें

त्रिपाठी जी का बड़ा संयुक्त परिवार था सो आपस मे खटपट तो होती ही रहती थी । पर बात इतनी बढ़ जाएगी ये घर के किसी सदस्य ने नही सोचा था । दरअसल छोटी बहू को लगा कि उनका भाई और भाभी जब घर मे कुछ दिनों के लिए घूमने आये ,तो उनकी खातिरदारी में घर के बाकि सदस्यों ने ध्यान नही दिया, जबकी सबको यह अधिकार दिया गया था कि वे अपने हिसाब से अपने लोगों का ख्याल रखें । उनकी मेहमान नवाजी करें । चूँकि परिवार बड़ा था और कोई न कोई मेहमान वहां आता रहता था । किंतु बिंदु ने इसे अपना अपमान जानकर प्रशांत से कई बार शिकायत कर चुकी थी । बिंदु थी भी आजाद खयालों की ,उसे देर रात तक पार्टियों में रहना, होटलों में रहना ,खाना पीना पसंद था जबकि इस घर मे कुछ पाबंदियां थीं । इस कारण भी वह यहाँ से असंतुष्ट रहती पर जेठानियों का अपनापन उसे बांधे रखता ।

इस बड़ी सी समृद्ध परिवारों वाली कालोनी में त्रिपाठी जी का बड़ा मकान था । वहां जितने भी लोग थे प्रायः पति पत्नी और बच्चे वाले एकाकी परिवार थे । पर त्रिपाठी जी अपने दो छोटे भाई के परिवार के साथ रहते थे । साथ मे उनके पिता बंसीलाल त्रिपाठी और माँ राधा रानी त्रिपाठी थीं । यह एक बड़ा संयुक्त परिवार था और उनका मानना था कि परिवार को साथ रहना चाहिये । तीनो भाइयों की पत्नियों में भी सम्बंध सामान्य थे। विवाद होता तो रसोई में काम को लेकर, रसोई से आपसी मनमुटाव बढ़ता देख त्रिपाठी जी ने सभी की रसोई अलग कर दी । सभी बहुये अपनी रसोई में अपने पति और बच्चो के हिसाब से खाना बना लेती थीं । सबके नॉकर भी अलग थे । मतलब ये कि साथ साथ रहने पर कम से कम खटपट हो ,यही कोशिश उनकी रहती । वे अपने भाइयों से प्यार करते थे और उनका मानना था कि साथ रहने से एक दूसरे की परेशानी समझने और उसे दूर करने में सबकी मदद मिलती है । दुःख और तनाव कम होता है । आपस मे मिलकर काम करो तो मुसीबत का बोझ कम हो जाता है।

सब कुछ अच्छा चल रहा था । उनका छोटा भाई प्रशांत, जिसकी यारी दोस्ती ज्यादा थी और उसका काम भी बाहर दूसरे शहरों में दौड़ धूप का था । उसके साथियों में एक रोहन था ,जिससे अक्सर जिंदगी के प्रति नजरिये को लेकर तर्क वितर्क हुआ करता । काम के बाद वे अक्सर किसी अच्छे से होटल में रात का खाना साथ खाते और एक दो पैग ले लिया करते । नशे में ज्ञान की बातें ज्यादा होती पर उनके बीच परिवार को लेकर बहस होती ।

रोहन का मानना था कि जब अपना करियर बन जाये तो जीवन अपने हिसाब से आजाद होकर जीना चाहिए परिवार, बाप,दादा,चाचा भतीजे के झमेले में नही पड़ना चाहिए । अपनी राह अलग कर लेनी चाहिए ।

नप्रशांत त्रिपाठी इस पर अपने तर्क देता कि सबका साथ होना चाहिए , जिन्होंने हमारा जीवन बनाया, हमे इस काबिल बनाया कि हम कुछ कर सके उनका साथ छोड़ना कैसे मुमकिन है ।

रोहन का तर्क था कि उन सबका मूल्य है ,पर आज के तेजी से बदलते माहौल में सबका साथ रहना सम्भव नही है । "अब तुम्हे ही देखो आये दिन तुम्हे दिल्ली और पुणे में डेरा जमाना पड़ता है । फिर घर लौटने की फिक्र । अब तुम्हे तो दिल्ली में सेटल हो जाना चाहिए पर तुम बस अपने परिवार की फिक्र में आना जाना कर रहे हो जो खर्चीला है । तुम्हारे बाहर रहने से तुम्हारी पत्नी और बच्चो पर असर पड़ता है । क्या ये ठीक है ? "

रोहन की बाते सुन सुनकर प्रशांत के मन में कुछ कुछ तनाव आने लगा । बिंदु भी आये दिन उससे कहती रहती ,रोहन की बात का समर्थन करती ,इन सबसे उसे लगता कि वाकई जिंदगी अपने हिसाब से जीनी चाहिए। जब चाहो घूमो,मौज करो ,खाओ पीओ,,उसकी बातों से उसका मन बदलने लगा । रोहन के परिवार में उसका एक भाई था और पापा थे । शादी के बाद उसकी भाई से कभी बनी नही सो वो बहुत पहले से अलग रह रहा था । उसके पापा छोटे भाई के साथ थे ।

आखिरकार प्रशांत ने फैसला ले ही लिया कि अब वो दिल्ली शिफ्ट हो जाएगा । इधर बड़े भाई साहब का सीना चौड़ा था कि वे आज भी संयुक्त परिवार चला रहे हैं । उनके परिवार की एकता की स्टोरी कई बार स्थानीय अखबारों में छप चुकी थी ।

और एक शाम ,,,,प्रशांत ने भाई साहब से अपना फैसला सुना दिया।

" भैया मैं दिल्ली में रहना चाहता हूं ।"

"क्यों ?"

मुझे आये दिन बाहर जाना पड़ता है सो चाहता हूं कि मैं वही रहूं ।"

"देखो प्रशांत बेशक तुम अपनी मर्जी के मालिक हो, पर मेरी राय है कि तुम कुछ ऐसा काम यहाँ शुरू करो, जो हमारे शहर में ही हो। क्या जरूरी है दिल्ली ? इस घर से तुम्हे क्या शिकायत है भाई ?"

"भैया शिकायत कुछ नही है, बिंदु भी चाहती है कि हम दिल्ली में रहें ।"

प्रशांत के मनोभाव देखकर भाई साहब उदास और दुखी हो गए ,,उनके परिवार की मजबूत शिला में कहीं दरार पड़ गयी थी ।

भाई साहब का चेहरा देख कर प्रशांत ने बनावटी उदासी लाकर उन्हें समझाने की कोशिश की ।

"भैया में कुछ महीने के लिए वहां जाकर देखता हूँ, नही जमेगा ,तो वापस आ जाऊंगा पर इस बार मुझे रोकिए मत ।"

भाई साहब ये तो समझ रहे थे कि छोटी बहू को साथ रहना रास नही आ रहा है ,पर उन्हें प्रशांत पर पूरा यकीन था कि वो अपनी पत्नी की समझा सकता है, पर ऐसा हुआ नही उल्टे प्रशांत ही उनसे अलग होने को बेताब था ।

अब क्या किया जा सकता है। वे खामोश हो गए । प्रशांत दिल्ली चला गया । प्रशांत के निर्णय से रोहन को ज्यादा खुशी हुई और अब वे दिल्ली में एक बहुमंजिली इमारत में आस पास में रहते । दोनो की शामें रंगीन होती ,,,शराब कबाब,और देर रात तक मस्ती । अक्सर उनकी पत्नियां और दोस्तो की पत्नियां सब जिंदगीं का लुत्फ उठा रहे थे। कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नही ,कोई सुनाने ,समझाने वाला नही । उस कालोनी के बहुमंजिली फ्लेट के 10 वे माले में प्रशांत रहता था चौथे माले में रोहन ।

दिल्ली शहर सुबह से रफ्तार में आ जाता, चूहों के बिल की तरह उन बहुमंजिली इमारतों से लोग निकलते ओर शाम को लौटते हुए उसमे घुस जाते । एक मशीन की तरह लोग हरकत में दिखते । किसी को किसी से कोई मतलब नही । इस भीड़ में भी हर कोई तन्हा था ।

आजाद जिंदगी के हसीन सपने लिए प्रशांत और बिंदु कुछ महीने तो बड़े मजे में बिताए, पर अब उन्हें लगता कि उनके अलावा यहां और कोई नही है । बिंदु को रह रहकर बड़ी जेठानियों की याद आती जो सुबह से उनके बच्चो को उठाती, उन्हें अपने बच्चों के साथ तैयार कराकर स्कूल भेजती ।उसे नाश्ते के लिए पुकारती,फिर सब एक साथ डायनिंग टेबल पर बैठ कर बतियातीं, फिर अपनी रसोई देखती ।

प्रशांत जिस कंपनी का काम करता था वो ऐसा था कि सुबह निकलो तो शाम तक चैन नही । रात को भी घण्टो फोन पर लगा रहना पड़ता । घर की दैनिक जरूरतों के लिए खुद झोला उठाकर जाना पड़ता। दिल्ली इतना महंगा शहर था कि काम वाली बाई से लेकर कोई नॉकर रखना मानो बजट की हालत खराब । पर इन सबके बावजूद उन्हें लगता कि वे मजे में हैं ।

इधर भाई साहब जब से प्रशांत गया था चिंतित रहते। अक्सर फोन मिला कर प्रशांत का हाल चाल पूछते रहते ।

एक दिन प्रशांत बिंदु के साथ बालकनी में बैठा था, तभी नीचे देखा तो एक शव वाहन खड़ा था । और एक लाश उसमे रखी जा रही थी । पास पड़ोस के सभी फ्लेट के लोग उसे देख रहे थे। नीचे कोई नही उतरा । जिस घर से शव निकाला जा रहा था उस परिवार के मात्र छ लोग एकत्रित हुए थे । 29 मंजिला इस विशाल इमारत के इन सैकड़ो फ्लेट में रहने वाले लोगो के पास उस मृतक के पास जाकर खड़े होने का समय नही था । ये देख प्रशांत के आश्चर्य का ठिकाना नही था । वो गाड़ी शव लेकर चली गई सब देखते रहे । किसी ने वहाँ जाना जरूरी नही समझा । उसे याद आया अपने घर का वो दॄश्य, जब दद्दा जी का देहांत हुआ ,तो किस तरह लोगो की भीड़ घर पर एकत्र हुई थी। किस तरह उनकी अर्थी को कंधा देने वालो में होड़ मची थी । दुःख दुःख नहीं रह गया था। इतने लोगो का साथ पाकर परिवार में शोक कहाँ रहेगा । ये लोग किस तरह रहेंगे अकेले, जिनके पास इस वक्त कोई बैठने नही आया । क्या यही महानगर है ? क्या यही जीवन है कि पैसे बंनाने की मशीन बन कर जिया जाय ? रिश्तों की मस्ती,प्रेम ,साथ साथ का सुख ,,एक दूसरे की चिंता यहां कुछ भी नही ! इधर,भाई साहब का बार बार पूछना ,,,प्रशांत का गला भर आया ,,बिंदु ने भी देख लिया ,उसके भी आंखो से आंसू बहने लगे । प्रशांत ओर बिंदु देर तक साथ बैठे रहे ,फिर प्रशान्त ने भाई साहब को फोन मिलाया ।

"भैया प्रणाम ,,,, "प्रशांत की आवाज भराई हुई थी

'हां कैसे हो प्रशांत ? सब ठीक है ? "भाई साहब की आवाज आई ।

"भैया मैं यहां का काम छोड़कर वापस आ रहा हूँ !"

"कब तक आओगे ?"

"15 दिनों के अंदर !"

"ठीक है आ जाओ !"

और फिर भाइसाहब ने तुरंत नॉकर से कहा, देखो प्रशांत के कमरे की सफाई करो, एक हफ्ते में सब चकाचक हो जाना चाहिए ।

उधर बिंदु अपनी जेठानी दीदी से बतिया रही थी, बीच बीच मे रो भी रही थी । प्रशांत कम्पनी का आखरी हिसाब किताब मिला रहा था और समान पेकिंग करने वाले को फोन कर रहा था ।

बच्चे घर मे किलकारी मार कर खेल रहे थे,,