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अच्छाइयां - 2

भाग – २

सूरजने बस में उतरकर सबसे पहले गहरी सांस ली, वो इस शहर की खुशबु को परखना चाहता था | पांच साल की जिंदगी जो अंधेरोमें कट गई थी वो इस कुछ पलमें भूला देना चाहता था |

‘जो हुआ सो हुआ.... जब मुझे सब अपने मिल जायेंगे फिर मैं सारे गम भूला दूंगा | हमारे दुखो को भूलानेमे अपनो का ही तो सहारा होता है और मेरा सहारा तो ये ही लोग थे, यदि ये सब नहीं होते तो मेरा कौन होता ? अब किसीसे कोई फ़रियाद नही और न तो किसीसे अपने दुखोकी बाते करूँगा, बस सब लोग मुझे फिर से मिल जाए तो ही बस....!’ सूरजने यही सोचते हुए अपनी बेग हाथमें ली और वो अपनी मंजिल के लिए आगे बढ़ने लगा |

इस शहर का हर रास्ता वो जानता था | जैसे जैसे सूरज अपनी मंजिल की ओर चलने लगा वैसे वैसे उनके कदमोमें मानो हवा के पंख लग गए हो वैसे उनकी रफ़्तार बढ़ने लगी | कितने सालो बाद आज मुझे अपने लोग मिलेंगे जिसको मैंने सालो पहले खो दिया था, वो सब मिलेंगे तो कितने खुश होंगे और मुझे भी कितना आनंद मिलेगा... ये सोचते हुए सूरज पैदल चलता हुआ शोर्टकट के छोटे और पूराने रास्तो पर तेजी से चलने लगा |

सफ़र का आनंद यही होता है की हमें हरदम लगता है की अब आगे सुख ही सुख है.... और ये सुख की तलाश हमें दूर दूर तक ले जाती है | हम दूर इसलिए निकलते है की हमारे मनमे आगे और अच्छा होगा वैसी एक सोच दबी पड़ी होती है, सही मानो तो यही एक आनंद है, ठहराव से तो अच्छा है की चलते रहना | आज सूरज भी अपने नए सुख की तलाश में आगे चल पड़ा था |

‘मुझे ईन रास्तोने ही तो बनाया है... मै यही कही भटकता था और उस इंसानने मेरा हाथ थामा तो मेरी जिंदगी बदल गई थी | आज फिर से उनके पास अपना हाथ रखूँगा और कहूँगा फिर से मेरी दुनिया सजादो, मेरा जीवन फिरसे खुशियो से भर दो... मुझे आपकी जरुरत है |’ सूरज आज फिर से छोटा बालक बनकर उनके पास जाना चाहता था जो उनके लिए भगवान से भी ज्यादा अहमियत रखते थे |

हम भी कई बार अपनी उलझनों में फंस जाते है और कोई दिशा या कोई रास्ता दूर दूर तक दिखाई नहीं देता, उसवक्त हम उसे ढूढ़ते है जिस पर हमें खुद से ज्यादा यकीन होता है, जिस पर हमें खुद से ज्यादा भरोसा होता है | सूरज आज अपना विशवास खो चूका था, उन्हें भी जरुरत थी अपनो की, उन्हें भी विशवास था की यही रास्ता मुझे फिर से नया जीवन देगा | सूरज के पास इस रास्ते से इलावा और कोई रास्ता भी कहाँ बचा था ?

आखिरकार सूरज अपनी मंजिल के सामने आ गया | ये जगह उनको अपनी जिंदगी से भी प्यारी थी, यहाँ पर ही तो मेरी सारी जिंदगी कटी थी, कोई पूछे की तुम्हारा स्वर्ग कहा है ? तो मैं कहता की ये मेरा स्वर्ग है..... सूरज कोलेज को देखकर कुछ देर तक ढहर गया, वैसे तो वो दौड़ना चाहता था मगर उनके पैरो पर बेडियां लगी हो वैसे वे रुक गए थे, उनको रास्ता साफ़ नहीं दिखाई दे रहा था क्युकी उनकी आँखे भर आई थी | वो दूर से अपनी कोलेज को देखते ही छोटे बालक की तरह रोने लगा, वो आज दुःख से नहीं कई मुश्किलों के बाद अगर छोटा सुख भी जब सामने मिल जाए तो भी आँखे भर आती है, वैसे ही सूरज कोलेज देखकर जी भरके रो रहा था |

चार दिवालो में कटी जिंदगी के सामने आज का दिन उनके लिए सारे गम भूला देने वाला था, उन्होंने जल्दी से आँखे पोंछी और फिर तितली की तरह उडाता हुआ कोलेज के करीब पहुंचा |

जैसे जैसे सूरज के कदम आगे पड़ते गए वैसे वैसे उनके कान सुरीले संगीत सुनाने को बेताब होने लगे.... वो संगीत जो सूरजने सालो से नहीं सुना था, वो संगीत जो सूरज की जिंदगी थी.... मगर जिंदगीने ऐसी रुख बदली की वो सालोभर संगीत के लिए तरसता रहा था.... वो दीवारों पर सर पटक रहा था... मैं निर्दोष हूँ..... मुझे कोई बचाओ, मगर उसकी चीखें सुननेवाला दूर दूर तक कोई नही था... आज वो सारे दुःख भूलकर सालो बाद संगीत सुनेगा, वो संगीत जिससे उनको बेहद लगाव और प्यार था |

सूरज कोलेज के मुख्य द्वार पर आ गया | उसके ऊपर बड़े अक्षर से लिखा था ‘ सरगम संगीत विद्यालय’, उसपर सूरज की आँखे रुक सी गई |

अपनी कोलेज का नाम पढ़ते ही सूरज की कानो में संगीत की ट्यून गूंजने लगी | वो धून जो सूरजने खुद बनाई थी, उस धून पर सारी कोलेज झूम उठती थी | सूरज के हाथो में जादू था, उनकी उंगलिया संगीत के किसी वाध्ययंत्र पर लग भी जाती तो मानो उसमे से अपने आप सुरीले सूर निकलना शुरू हो जाते थे |

आज सूरज सालो बाद वो धून बजाना चाहता था | वो आज ध्यान लगाकर सुनना भी चाहता था की किसी कोने में से उसे संगीत सुनाई दे, मगर वो असफल रहा, कही से भी कोई सूर या धून की हलकी आवाज भी नहीं आ रही थी |

सूरज को आश्चर्य हुआ, इस कोलेजमें हर प्रहर के अनुसार गीत और राग छेड़े जाते थे, उनका बारबार रियाझ होता था, मगर आज उन्हें वो राग या उसकी कोई धून सुनाई नहीं दे रही थी | ब्राह्ममुहूर्तमें राग रागिनी से शुरू होनेवाला ये कोलेज सुबह में चुपचाप खड़ा था, सूरज जब इस कोलेज में था तो ऐसा कभी नहीं होता था |

प्रवेशद्वार बंध था | वहा से सूरजने अन्दर दूर तक नजर फैलाई मगर वहा कोई नहीं था | कोलेज में जो पहले भीड़ रहती थी वहापर आज सुनकार था, ये कोलेज जो सूरज की जान थी वो सूर संगीत के बिना आज मानो बेजान सी खडी हो वैसी लगती थी |

सूरजने दरवाजे को धक्का लगाया और कीचचचचचडडडड...... जैसे बेसुरे आवाज के साथ खुला | सूरज कोलेज की ये हालत देखकर हैरान हो गया.... इस कोलेज के कण कण में संगीत था...... कोई पथ्थर गीरे या पतझड़ में पत्ते गीरे तो भी उसमे से सूर निकलते थे.... उस कोलेज के इस द्वार पर बेसुरा आवाज सूरज को अच्छा नहीं लगा | सूरजने आगे नजर दौड़ाई तो सामने जो बाग था वो हरदिन फूलो से सजा रहता था वो भी सुखा पड़ा था.... जहा हरवक्त सब चीजो की सही सजावट रहती थी वहा पर आज सबकुछ अस्तव्यस्त था....

‘क्या यही मेरी वो पुरानी कोलेज है ? बड़े महल की तरह दिखनेवाली मेरी इस स्वर्गभूमी को किसका ग्रहण लग गया ?’ सूरज कोलेज की हालत देखकर दंग रह गया |

क्रमश:..............

डॉ. विष्णु प्रजापति

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