लौट आओ दीपशिखा - 7 (22) 431 339 1 लौट आओ दीपशिखा उपन्यास संतोष श्रीवास्तव अध्याय सात दूर दूर तक फैले समुद्रतट पर चहलक़दमी करते हुए उसने शेफ़ाली से पूछा- “क्याआप फ्लोरेंस, वेनिस देखे बिना भारत लौट जाएँगी? फ्रांस और इटली की दूरियाँ पर्यटक महसूस नहीं करते इतने क़रीब हैं दोनों देश|” “आप चलेंगे?” शेफ़ली ने सहज हो पूछा| “औरआपकी सखी?” “दीपशिखा? शायद..... पूछ लेती हूँ सबसे आज डिनर के वक़्त|” लेकिन शेफ़ाली के इस प्रस्ताव पर सना को छोड़कर बाकी के लोग तैयार नहीं थे| एक तो ख़र्च की समस्या, दूसरे भारत लौटने की जल्दी| इसप्रदर्शनी के बाद सभी को अच्छा काम मिलने की उम्मीद थी| नीस के होटल के कमरे के एकांत में दीपशिखा ने शेफ़ाली का मन टटोलने की गरज से पूछा- “शेफ़ाली..... एक बात पूछूँ? तुषार के बारे में तू क्या सोचती है? आई थिंक.....” शेफ़ाली ने गहरी साँस ली- “कुछ नहीं छिपाऊँगी तुमसे| मैं भी उसे लेकर डिस्टर्ब हूँ..... जैसे सहज बहते जीवन को छेड़ दिया गया हो| शाम को जब हम नीस के समुद्रतट पर टहल रहे थे..... धीरे-धीरे रात गहराने लगी थी और सितारे टिमटिमाने लगे थे..... उसवक्त सफ़ेद बालू तट पर उभरी चट्टानोंमें दो चेहरे नज़र आ रहे थे..... मनो वक़्त ने भी हमें स्वीकार कर लिया हो.....” “तेरे आत्मचित्रोंका कमाल था जो.....” “नहीं,तुषार से मिलना नियति ने इसी तरह तय कर रखा था शायद| मैं उसे महसूस करने लगी हूँ, वह मेरे दिल में गहरे उतर गया है|” शेफ़ाली ने आँखें बंद कर लीं| वह एक दूसरी ही दुनिया थी जहाँ बस धड़कनें थीं और एहसास थे..... प्रेम की आँच में धीरे-धीरे गर्म होता ठंडा निस्सार जीवन था| दस्तकें शेफ़ाली के दिल के दरवाज़े ढूँढ रही थी| सब भारत लौट गये| दीपशिखा नीलकांत के पास पेरिस चली गई और तुषार, शेफ़ाली और सना फ्लोरेंस रवाना हो गये| तुषार की विश्वास भरी आँखें दृढ़ व्यक्तित्व के साथ संकोची किन्तु प्लावित कर देने वाली कोमलता ने शेफ़ाली के चारों ओर अदृश्य जाल बुन दियाऔर वह उसमें सिमटती चली गई| तुषार कोमल, भावुक न होता तो कला के प्रति उसका रुझान नहीं होता| कलाकार और कला के शौक़ीन ऐसे ही होते हैं| फ्लोरेंस में तीनों जिस बाग़ में घूम रहे थे वह हरा-भरा, रंगबिरंगे फूलों और इन्द्रधनुषी फ़व्वारे वाला था| लेकिन उसकी ख़ासियत थी कि चिड़ियों के लिये दाने ख़रीदकर जब अपनी हथेलियों पर फैलाओ तो चिड़ियाँ टहनियों से उतर आती थीं और हथेली पर बैठकर दाना चुगने लगती थीं| इस खेल में जो रोमांच था वोकैमरों में क़ैद नहीं किया जा सकता था| रात को जब सना फ्रेश होने के लिए बाथरूम गई शेफ़ाली ने दीपशिखा को फोन लगाया- “कैसी है तू?” “तूबता..... कैसा लग रहा है फ्लोरेंस में तुषार का साथ|” “दोनोंहीबहुत उम्दा लग रहे हैं| दो दिन यहाँ रूककर वेनिस जायेंगे|” “पानी पे बसा शहर? नहरों की सड़ाँध के लिए मन को तैयार कर लेना| औरयाद रखना हम शनिवार को मुम्बई लौट रहे हैं| तेरी और सना की टिकट मेरे साथ ही है| टाइम पर पहुँच जाना| तुषार कब लौटेगा?” “हमारे साथ ही, उसी दिन..... शायद फ़्लाइटदूसरी हो| मुझे ठीक से पता नहीं है|” “तो पता कर न..... प्रपोज़ क्यों नहीं कर डालती, मनचाहा साथी मुश्किल से मिलता है|” शेफ़ाली की आँखों में सितारे झिलमिलाने लगे..... शायद मन ही मन वह भी ऐसा ही चाह रही थी पर अपनी तरफ़ से कहे कैसे? यह उतना आसान नहीं है| वेनिस में रुकना सचमुच कठिन था..... घूमते हुए तमामइमारतें, दर्शनीयस्थल देखे तो पर दीपशिखा की कही बात बार-बार नहरों के ठहरे हुए पानी की ओर ही ध्यान खींच लेती थी| हवाओं में एक तरह की बिसांध थीजो अक़्सर रुके हुए पानी से आती है| लेकिन इसी जल नगर में सेंट मार्क्स स्क्वायर में ढेरों कबूतरों के बीच खड़ी सना से नज़रें बचाकर तुषार ने आख़िर हिम्मत कर ही ली- “शेफ़ाली, क्या हम अपनी ज़िन्दग़ी साथ-साथ गुज़ार सकते हैं? मेरे पेरेंट्स पिछले तीन साल से इस कोशिश में हैं कि मैं शादी करलूँ पर कोई जँचता ही नहीं|” शेफ़ाली को उम्मीद से बढ़कर लगा सब कुछ..... लेकिन तुरन्त हाँ भी कैसे करे, पता नहीं तुषार उसके बारे में क्या राय कायम कर ले| “मुझे थोड़ा वक़्त दो तुषार|” उसने अपनी झपकती पलकें तुषार के चेहरे पर एक पल को यूँ झपकाईं जैसे वहाँ कुछ ऐसा है जिसे वह समेट लेनाचाहती है..... सम्पूर्ण हो जाना चाहती है| तुषार का चेहरा कुम्हला गया| उसने गहरी साँस भरी- “ओ.के. टेक योर ओन टाइम..... और किसी भी तरह का प्रेशर भी नहीं समझना इसे| आज हम पेरिस के लिए रवाना हो जाएँगे| पेरिस में मुझे अपने रिसर्च पेपर्स और जनरल्सकलेक्ट करना है| हम सीधे एयरपोर्ट पर ही मिलेंगे|” उसने सना को आवाज़ दी- “चलोसना, अभी हमें मुरानोग्लासफैक्टरी भी जाना है|” सना दौड़ती हुई आई- “तुषार, मुझे कॉफ़ी पीनी है|” कॉफ़ी शॉप सामने ही थी| सत्रहवीं सदी में जब नेपोलियन वेनिस आया था तो यहाँ एक भी कॉफ़ी शॉप नहीं थी| ये कॉफ़ी शॉप उसी ने बनवाई थी| कॉफ़ी पीकर तीनों मुरानोग्लास फैक्टरी आये जहाँ बड़ी सी दहकती भट्टी में शीशा पिघलाकर उसे आटे की तरह मुलायम कर लिया जाता है| एक कारीगर शीशे के लौंदे से घोड़ा बनाने में तल्लीन था|फैक्टरीमें ही शो रूम है| शेफ़ाली ने दीपशिखा और अपनी दीदी के लिए ख़रीदारी की| पेरिस पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई| तुषार रास्ते में उतर गया| उसका चेहरा अभी भी उदास दिख रहा था| कहीं उसने तुषार का दिल तो नहीं दुखा दिया? कहीं उसकी मायूसीइंकारी की वजह न बन जाये| कई सवालों को लिए वह दीपशिखा के सामने थी| “बेवकूफ़ है तू..... टाइम चाहिए..... प्यार करने की उम्र में प्यार किया नहीं और अब टाइम चाहिए|” “तो क्या करती? उतावलीदिखाकर हमेशा के लिये उसकी नज़रों से खुद को गिरा देती?” “तो क्या तू उसे पसंद नहीं करने लगी है?” “करती हूँ पसंद..... पर|” “अभी फोन लगा| वरना तेरी बेरुखी में बेचारा ज़रूरी पेपर्स ले जाना न भूल जाए| दिल का अच्छा है तुषार| जिसके साथ बैठकर खुशी महसूस हो, पॉज़िटिवसोच हो जाए, पूरीकायनातबग़ैरबुराईयों के नज़र आने लगे तो मिल गये न मन के तार| हवाएँ तक तो पहुँचा देती हैं मन की बातें अपने चाहने वाले तक वरना कोई किसी को ऐसे ही नहीं पसंद करने लगता|” “मदाम..... लैक्चरर कब से हो गई?” “तू तो होने वाली है न| चित्रकलाको स्कूलों में सिखाने का तेरा सपना..... ऐसा ही कुछ सोचा है न तूने|” शेफ़ालीकंबल में दुबक गई- “सपनातो है पर हर सपना हक़ीक़त बने ये मुमकिन नहीं है|” भारत लौटने के बाद सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गये| एक बड़ा मिशन पूरा होने की खुशी वेफोन पर एक दूसरे से बातें करते हुए, स्टूडियो में गाहे-बगाहे मिलते हुए बाँटते रहे| शेफ़ाली भी स्कूल कॉलेजमें नौकरी की अर्ज़ियाँ देने के काम में जुट गई|अब उसे अपनी कला को भी विद्यार्थियों तक पहुँचाना है, उन्हें पारंगत करना है| वह सना को भी यही सलाह देने लगी जबकि सना की अध्यापिका बनने में ज़रा भी रूचि नहीं थी लेकिन तुषार तक पहुँचने के लिए उसे अच्छी तरह समझने के लिए सना के नज़दीक आना ज़रूरी था| दीपशिखा पूरे आराम के मूड में थी| वह कुछ दिनों के लिए पीपलवाली कोठी चली गई| नीलकांत अपनी फिल्म को प्रमोट करने की कोशिश में जुट गया| जितना तनाव शूटिंग के दौरान उसे रहता है उससे भी ज़्यादा फ़िल्म को बॉक्स ऑफ़िसमें सफलता दिलाने का रहता है|क्या-क्या हथकंडे अपनाए जाते हैं| टी. वी. के रियल्टी शोज़ में, सीरियल्स में, महाएपिसोड फिल्म की पब्लिसिटी करना ज़रुरत बन गई है| नीलकांत को दम मारने की फुरसत नहीं मिलती| रिया, दिया की भी वीकेंड की फ़रमाइशें पूरी नहीं कर पाता| एक बार फिल्म परदे पर चल पड़े तो तसल्ली मिले| “तुम तो फोन तक नहीं करते नील|” दीपशिखा ने फोन पर शिकायत की| “बस,करनेही वाला था कि तुम्हारा फोन आ गया| कैसी हो दीप?” “मोटी हो रही हूँ..... माँ लाड़ में खूब तली भुनी चीज़ें खिला रही हैं| दिन भर पढ़ती हूँ और थोड़ा बहुत बगीचे में काम| न वॉक, न एक्सरसाइज़|” “अरे..... तब तो वज़न बढ़ेगा ही| मैं तो उलटे वज़न घटाने की बात करने वाला था| अगली फिल्म में तुम्हें लीड रोल दे रहा हूँ|” “हमसे पूछे बिना ही तय कर लिया..... दिज़ इज़ नॉट फ़ेयर नील| बहरहाल तो फिल्मों मेंजाने का इरादा नहीं है और अगर गई तो बेहतरीन स्टोरी पहली शर्त होगी|” “ओ.के...... क़ुबूलहै|आजकल तुम्हारी शेफ़ाली और तुषार अक़्सर जुहू बीच पर या इनॉरबिट में पाये जाते हैं|” “तुम उधर क्या करने जाते हो?” नीलकांत हँसा- “दो-दो गर्लफ्रेंड हैं मेरी तुम्हारे अलावा| उनकी फ़रमाइशें पूरी करनी होती हैं|” “अच्छा ऽऽ..... आती हूँ, बताती हूँ|” नीलकांत फिर हँसने लगा- “अरे यार..... निकलीं न बाबा आदम के ज़माने की सोच वाली! रिलैक्स..... मैं रिया दिया की बात कर रहा था| “मुझे पता है| अच्छा फोन रखो, किसी का फोन आ रहा है|” नीलकांत का नंबर कट होते ही शेफ़ाली बरस पड़ी- “कितना बिज़ी रखती हो फोन.....” “नीलकांत था..... हाँ बता, क्यों परेशान है?” “दीपू, तू कब तक लौटेगी| इधर तुषार शादी की हड़बड़ी में है| कहता है मम्मी, पापा की ओर से प्रेशर है| उसकी दादी अपने पोते की बहू देखना चाहती हैं| वे कई महीनों से बीमार हैं लेकिन मैं खुद को अभी तैयार नहीं पा रही हूँ| तुषार बेहद अच्छा है पर शुरू में तो सभी अच्छे होते हैं|” “तू इतना शक करेगी तो जीना दूभर हो जाएगा|ऐसा मान के क्यों नहीं चलती कि सब कुछ पहले से तय रहता है..... हम चाहकर भी वो नही पा सकते जो क़िस्मत में नहीं है| मेरे ख़याल से तुम्हें मान जाना चाहिए|” दोनों देर तक इस विषय पर बात करती रहीं| माली काका दीपशिखा की फरमाइश पर पीले गुलाब की कलमें ले आये थे जिन्हें वह अपने हाथों से लॉन के बीचोंबीच क्यारीमें रोपने वाली थी, सुलोचना खमण ढोकला लिए नाश्ते की टेबिल पर उसका इंतज़ार कर रही थीं| दोनों ही इंतज़ार करते-करते थक गये पर बात ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी| अंत में दीपशिखा ने शेफ़ाली को मना ही लिया| अब उसे जल्दी लौटना होगा क्योंकि इसवक़्त शेफ़ाली को उसकी ज़रुरत है| शेफ़ाली ने खुद को रिज़र्व रखा था| कभी किसी को नज़दीक नहीं आने दिया| अब उसके जीवन में प्यार ने अँगड़ाई ली है| अब उन रुकी हुई बहारों को वह शेफ़ाली के जीवन में प्रवेश करते देखना चाहती है| सहसा वह हड़बड़ा गई- “माँ, मुझे जाना होगा, कल ही मुम्बई|” “अरे, अचानक क्या हुआ?” “बस यूँ समझो..... बेहद-बेहद ज़रुरत है मेरी शेफ़ाली को|” सुलोचना दीपशिखा के ऐसे चौंकाने वाले अंदाज़ से परिचित थीं| वे जानती हैंउनकी बेटी असाधारण है| आम लोगों जैसे व्यवहार की उम्मीद वे करें भी तो कैसे? दीपशिखा का मुम्बई से पीपलवाली कोठी आना और लौटना अब उनकी दिनचर्या में शामिल है| वे अभ्यस्त हो गई हैं| उन्होंने दीपशिखा के सिर पर हाथ फेरा और अपने कमरे में चली गईं| मुम्बई में सना के घर पर मिलना तय हुआ| तुषार के माँ बाप यानी सना के मामा मामी..... पहली ही नज़र में दीपशिखा मामा के रूआबदार व्यक्तित्व और नवाबी शानबान को ताड़ गई थी| बातें होंगी वज़नदार, उन्हें सतर्क रहना है| शेफ़ाली की तरफ़ से दीदी और दीपशिखा| पहली बात तो यही उठी कि दीदी ने शादी क्यों नहीं की? “इस निजी सवाल को रिश्ते के बीच में लाया ही क्यों जाए आप शेफ़ाली और तुषार के बारे में ही बात करें तो बेहतर है|” दीदी के दो टूक जवाब ने उन पर असर किया| तुरन्त पहलू बदलकर बोले- देखिए, यहरिश्ताआनन-फ़ानन में तय करना पड़ रहा है| असलमें हमारी अम्मा की बहुत इच्छा है अपने पोते की दुल्हन देखने की| आप तो जानते हैं, खानदानी मसला है| अम्मा ज़मींदारों के घराने से इकलौती बेटी हैं और हमारा तुषार..... जुनूनी है..... अब क्या बताएँ आपको|” बिल्कुल नवाबी अंदाज़ में तुषार के पिता कह रहे थे| शेफ़ालीऔर दीदी दोनों समझ रही थीं कि मसला ज़मीन जायदाद को लेकर है पर जहाँ तक शेफ़ाली तुषार को समझ पाई थी तुषार अपनी मेहनत की कमाई ही चाहता है| उसे अधिकार की, हक़ की लड़ाई बिल्कुल पसंद नहीं| “भैया, शेफ़ाली की तरफ़ से तो हाँ है| इसकी मैं गारंटी देती हूँ|” सना की मम्मी ने चाय नाश्ते की ट्रे टेबिल पर रखते हुए कहा| दीदी और दीपशिखा ने भी उनका साथ दिया क्योंकि न की कोई गुंजाइश ही नहीं थी| बहरहाल चाय नाश्ते के पहले शगुन हुआ| दीदी ने तुषार का तिलक किया और तुषार की माँ ने शेफ़ाली की गोदमेवों और रुपियों से भरी| सभी ने तुषार और शेफ़ाली को बधाई दी| “कल ही पंडित को बुलाकर सगाई और शादी की तारीख़ें निकलवाती हूँ|” तुषार की माँ ने कहा और शेफ़ाली को गले से लगा लिया| गाड़ी में बैठते ही दीदी ने शेफ़ाली का माथा चूम लिया- “बधाई शेफ़ाली, आज मैं बेहद खुश हूँ मैं इस खुशी को सेलिब्रेट करना चाहती हूँ| चलो मूवी चलते हैं|” “हाँ शेफ़ाली, आज का दिन बेहद खुशी का है| सब कुछ जल्दबाज़ी में हुआ परनिभाने वाले जल्दी और देर में यकीन नहीं करते| मूवी के बाद डिनर मेरी ओर से|” “दीपू और दीदी..... ये डबल दी..... मुझे खुश होने, सोचने का मौका ही नहीं देना चाहतीं| चल भाई शेफ़ाली..... ज़िन्दग़ी के धूपछाँही रास्तों से होकर गुज़र जा| इस अहम फैसले के लिये देखा जाये तो तेरा कोई रोल ही नहीं था| सब कुछ पहले से फिक्स्ड था|” “शेफ़ाली ऽऽऽ” दीदी ने आँखें तरेरीं और तीनों खिलखिला कर हँस पड़ीं| हँसी के इन फूलों ने थियेटर तक उनका पीछा किया| मूवी शुरू हो चुकी थी| तीनों अँधेरे में टटोलते हुए अपनी सीटों पर आकर बैठ गये| दीपशिखाघर लौटी तो देखा दाई माँ बाल्कनी में दरीबिछाए लेटी हैं और काका उनका माथा सहला रहे हैं- “क्याहुआ काका?” “कुछ नहीं बिटिया, गैस चढ़ रही है इन्हें|” “हाँ तो पुदीन हरा पिला दो न| आप भी काका, सब मालूम है, न जाने क्यों भूलजातेहो?” वह अपने कमरे में आकर सोफ़े परबैठी ही थी कि मोबाइल पर नीलकांत कॉलिंग..... उसने खुश होकर बताया- “आजशेफ़ाली और तुषार का शगुन हो गया| मैंबहुत खुश हूँनील,” “तो एक खुशखबरी मेरी ओर से भी| अक्टूबरदस तारीख़ से यानी चार माह बाद तुम्हारी फिल्म की शूटिंग शुरू हो जाएगी|सिलीगुड़ी के जंगलों में शुरुआत के दृश्य फिल्माये जायेंगे|” “तो तुम मुझे अभिनेत्री बनाकर ही छोड़ोगे| लोग क्या कहेंगे रंग ब्रश की दुनिया से सीधे कैमरे का सामना?” “यह भी तो कला है| तुम ब्रश और रंगों से भावों को चित्रित करती हो| अभिनय भी तो भावों को ही चित्रित करने, जताने का एक ज़रिया है|” दीपशिखा इस तर्क पे लाजवाब थी| लेकिन यह ख़बर सुनकर शेफ़ाली विचलित हो गई- “नहीं दीपू, ये दुनिया हमारी नहीं है..... भोले-भाले भावुक लोगों के लिए तो फिल्मी दुनिया क़तई नहीं है| जब से हम फ्रांस से लौटे हैं कितना समय दिया तुम्हेंनीलकांत ने? अपनी ही फिल्म के जगह-जगह प्रदर्शन में जुटा रहा| फर्स्ट वीकेंड में ही करोड़ों कमा लिए और चार महीने नहीं बीते कि दूसरी फिल्म? इस बीच तूने क्या किया..... बता, कितने चित्र बनाए?” “तेरेलफ़ड़ेसे फुरसत मिले तो बनाऊँ| इसीमहीने तेरी शादी है| सारी तैयारी करनी है|” “बस..... बस दादी अम्मा..... बात को टाल मत| मेरी राय में तुझे फ़िल्म नहीं लेनी चाहिए| फ्लॉप हो गई तो बदनामी अलग|” शेफ़ाली की बात ने दीपशिखा को सोचने पर मजबूर कर दिया| सच तो है, उसे हो क्या गया है? पेरिस मेंप्रदर्शनी के बाद क्या उसकी कला चूक गई है? बचपन से रंग, ब्रश, रेखाएँ और कैनवास में रमने वाला मन भटक क्यों रहा है? क्योंवहनीलकांत के कहने पर फिल्म साइन कर रही है? वह तो आज़ाद विचारों की है| किसी के बताये रास्ते पर चलना उसे पसंद नहीं| उसकी दुनिया तो पर्वत,जंगल, धरती, आसमान को गहराई से देखने, समझने और चित्रित करने में ही है| उसके रंगों के चुनाव अक़्सर दर्शकों को चौंका देतेहैं| सीधी और घुमावदार रेखाओं के बीच ऐसी जुगलबंदी चलती है कि उसके चित्रों में सुर भी रेखाओं में बदलते जाते हैं| उसके चित्रों की सबसे बड़ी खूबी उसकी गहराई ही तो है| वह बैंगनी और सिलेटी रंगों से बाजीगरकी तरह खेलती है| वह हफ़्तों से बंद पड़े रंगों को खोलने लगी| अचानक उसने ब्रश थामा और देखते ही एखते कैनवास पर एक पराऐतिहासिक स्त्री का चेहरा उभर आया| क्या यह चेहरा उसका है? वह आग जो उसमें अनवरत सुलगती रहती है और जिसे आज ही शेफ़ाली ने हवा दी है..... वह आग जो जंगल के जंगल फैलकर उससे चित्र बनवाती है..... वह सृजन की आग..... कहाँ हो इसमें नील तुम?तुम जो शो मैन हो, सपनों के सौदागर..... और मैं पराऐतिहासिकसब कुछ सहकर, उस आँच में पककर, सिंक कर, कभी न टूटने वाली मिट्टी से बनी मूरत..... नीलकांत ने फोन पर सूचना दी- “गाड़ी भेज रहा हूँ| बांद्राके मेरे स्टूडियो में तुम्हें गौतम राजहंस मिलेगा..... तुम्हारी फ़िल्म का कहानी लेखक| कहानी सुन लेना उससे, मैं थोड़ा बिज़ी हूँ|” “नील तुम.....” पर फोन कट गया था| वह फिर से उसका नंबर मिलाने लगी पर हाथ रुक गये| कहानी सुनने में क्या बुराई है| “दाई माँ, एक कप कॉफ़ी मिलेगी?” उसने तैयार होते हुए कहा| “कहीं जा रही हो बिटिया?” “हाँ..... जल्दी लौट आऊँगी| पालक की खिचड़ी बना लेना और कुछ खाने का मूड नहीं है|” गाड़ी आ गई थी| साथ ही नीलकांत का फोन भी- “गाड़ी पहुँची कि नहीं?” “पहुँचगई बाबा, कितना टेंशन लेते हो नील|” गौतम राजहंस दीपशिखा से निश्चय ही तीन-चार साल छोटा ही रहा होगा| कामके प्रति जूनून था उसमें| सपनीली आँखों में बहुत कुछ ऐसा बयाँ था जो दीपशिखा को चकित किये था| दोनों के बीच कॉफ़ी के प्याले थे,बर्फ़ीली ठंडक वाले नीम अँधेरे स्टूडियो में दरवाज़े खिड़कियों पर लगे नीले रेशमी परदे सम्मोहित कर रहे थे| “वाह, बहुत अच्छा लिखा है आपने| फिल्मी नब्ज़ आपने पकड़ ली है|” दीपशिखा ने कहानी सुनकर अपनी राय दी| “इसके पहले भी मैं नीलकांत सर की दो फिल्मों पे काम कर चुका हूँ| एक फिल्म खूब पसंद की दर्शकों ने, फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला उसे.....” “और दूसरी?” “डिब्बेमें बंद है|” “क्यों? एनी रीज़न?" “तब सर बहुत डिस्टर्ब थे, तलाकहो चुका था उनका|" “ओह..... आय’म सॉरी|" दीपशिखा ने ऐसा जताया मानो वह कुछ जानती ही नहीं और ऐसा करना ज़रूरी भी था| वॉचमेन ने गौतम और दीपशिखा के बाहर निकलते ही स्टूडियो बंद कर दिया और नीलकांत को फोन पर इत्तिला दे दी| “तो मैं चलूँ दीपशिखा जी?” “क्यों? मेरे साथ नहीं चलेंगे? मेरा घर देख लीजिए| रास्ते में बातें भी हो जायेंगी|” गौतम इंकार नहीं कर सका| गाड़ी गेट के बाहर जब निकली, सूरज डूब चुका था और उसकी लालिमा के संग अँधेरे का कँट्रास्ट बेहद खूबसूरत नज़र आ रहा था| गौतम बहुत शालीन लगा दीपशिखा को| उसकाव्यक्तित्व भी रोमन मूर्तियों जैसा था| एक-एक अंग साँचे में ढला..... क़द्दावर, मनमोहक| “आपने फिल्मी लेखन को प्रोफ़ेशन के रूप में क्यों अपनाया?” दीपशिखा ने जानना चाहा| “नहींजानता क्यों? शायदमेरीअन्तरआत्मा की आवाज़ हो जिसकी बिना पर हर कलाकार अपनी विधा चुन लेता है|अब आप भी तो चित्रकला से अभिनय कला की ओर मुड़ी हैं| क्या ये आपकी अंतरआत्मा की आवाज़ नहीं है?” “नहीं|” सुनकर चौंक पड़ा गौतम- “फिर?” “ये प्रेम की दीवानगी है जहाँ इंसान सोचना समझना बंद कर देता है|” गौतम एकटक दीपशिखा को देखता ही रह गया| घर के गेट पर गाड़ी रुक चुकी थी- “अंदर नहीं आयेंगे|” गौतम मुस्कुराया- “फिल्मी हूँ, मुहूरत निकालकर आऊँगा|” दीपशिखा भी मुस्कुराई- “हम इंतज़ार करेंगे|” गाड़ी के ओझल होते तक वह गौतम को हाथ हिलाती रही| शेफ़ाली की माँ तुषार को देखना चाहती थीं लेकिन शेफ़ाली तुषार के अकेले उनके पास जाने से हिचकिचारही थी| पता नहीं भैया भाभी का क्या रवैय्या रहे उसके साथ, वैसे भी वे दोनों बहनों से कोई मतलब नहीं रखना चाहते थे| क्या पता शादी में आयेंगे भी या नहीं| वे माँ की ज़िम्मेवारी निभाते हुए जैसे दोनों बहनों पर क़र्ज़ सा लाद रहे थे| जब से दीदी और शेफ़ाली मालाड में फ्लैट लेकर शिफ़्ट हुई हैं तब से वे यही चाह रहे हैं कि माँ को मुम्बई भेज दें| दीदी थोड़ा और सैटिल होते ही माँ को ले आयेंगी ये तय है| तुषार का परिवार शादी मुम्बई से ही करना चाहता है यह शेफ़ाली के लिये अच्छी ख़बर है| उसनेदीदी को तुषार के साथ माँ के पास जाने के लिये यह कहकर मना लिया कि वह शादी से पहले जहाँगीर आर्ट गैलरी में होने वाली विभिन्न प्रांतों से आये चित्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनी ‘दफैंटेसी वर्ल्ड’ में हिस्सा ले रही है साथ ही तुषार को सरप्राइज़ भी देना चाहती थी| “तुषार को सरप्राइज़ चित्रों को बनाकर भला कैसे? बतायेगी तू?” दीपशिखा ने पूछा| “बताती हूँ..... दीदी और तुषार को एयरपोर्ट पहुँचाकर सीधे तेरे घर आई हूँ..... तो चाय..... अरे दाई माँ चाय भी बना ली?” “नहीं, तेरे ऑर्डर का इंतज़ार कर रहे थे|” शेफ़ाली ने दाई माँ के हाथ से प्याला लेकर घूँट भरी- “तुझे तो पता है तुषार मनोचिकित्सक है| तो मैं भी ‘माइंडस्केप’ नाम से एक चित्र श्रृंखला बना रही हूँ| पहले चित्र में अरब सागर के किनारे का एक ऐसा दृश्य है जो सागर की तरंगों की तरह ब्रेन में उठने वाली तरंगों का आभास कराता है| दूसरे चित्र में इन तरंगों की कई कई परतें हैं| अनेकस्तरों पर इनका अस्तित्व मन के अलग अलग भावों का प्रतीक है|‘माइंडस्केप’ की यह श्रृंखला यथार्थ को ऐब्स्ट्रेक्टऔर फिर ऐब्स्ट्रेक्टको यथार्थ में ले जाने वाली है| एैक्रेलिक रंगोंसे बने इन चित्रों में स्थूल लैंडस्केप और सूक्ष्म भाव पिरोये हैं मैंने| “वाह..... कमाल का सरप्राइज़ है तेरा..... अब तू पिया के रंग में रंग गई| मैं तो ठहरी पड़ी हूँ|” “तू पहले ही रंग चुकी है नीलकांत से गंधर्व विवाह करके|” “तेरी बात में वज़न तो है|” “चल फिर..... कल शॉपिंग निपटा लेते हैं|” “यही ठीक रहेगा..... दीदी सोमवार को लौटेंगी न? और दस तारीख़ को मेंहदी और फिर तुषार की माँ का आदेश है कि मेंहदी के बाद नो शॉपिंग|” दीपशिखा ने बड़ी बूढ़ियों के अंदाज़ में कहा और दोनों ही खिलखिला पड़ीं| समंदरकी ओर खुलने वाली खिड़की से हवा के संग कुछ बूँदें भी कमरे में दाख़िल हो गईं| “लगता है बारिश हो रही है| चलो, गर्मी कुछ कम होगी| इस साल मौसम विभाग की सूचना है कि मॉनसून जल्दी आयेगा|” “सो तो आ गया..... हम तो सराबोर हैं|” शेफ़ाली की शरारत पर देर तक हँसी के ठहाके गूँजते रहे| शेफ़ाली के जाने के बाद दीपशिखा उसकी ‘माइंडस्केप’ श्रृंखला के बारे में सोचती रही| उसे पिकासो याद आये जिन्होंने कहा है कि एैब्स्ट्रेक्ट जैसी कोई चीज़ नहीं होती, किसी न किसी यथार्थ से ही शुरुआत करनी होती है| उसी को रचते-रचते रचना में से असली यथार्थ को हटाकर उसमें कुछ कल्पना को मिला देना ही कला है| फिरयथार्थ क्या है? सोचती रही दीपशिखा| उसके आगे खुले इन नये-नये रास्तों में से न जाने कौन सा रास्ता उसे मंज़िल तक ले जायेगा| बड़ी अनिश्चय की स्थिति है..... क्या गौतम से सलाह ले जो अब उसका क़रीबी दोस्त बन गया है| नीलकांत तो उसे ग्लैमर की दुनिया में घसीट रहा है जो उसकी दुनिया है ही नहीं| बहुत सादगी से भरी शैड के बाद अब शेफ़ाली तुषार के माता पिता के नेपियन सी रोड वाले विशाल बंगले में आ गई है| दीपशिखा संतुष्ट है कि शेफ़ाली कोउसकीमंज़िल मिल गई| तुषारका भी भूलाभाई देसाई रोड पर क्लीनिक खुल गया है जहाँ वह चार डॉक्टर्स की टीम के साथ काम कर रहा है| खुश है शेफ़ाली- “तुषार इज़ परफ़ेक्ट लाइफ़ पार्टनर..... जैसा मैं चाहती थी बिल्कुल वैसा ही”दीपशिखा को ये बताते हुए शेफ़ाली की सवालिया नज़रें उसकी ओर उठी थीं| दीपशिखा ताड़ गई थी कि शेफ़ाली क्या पूछना चाह रही है- “प्लीज़ शेफ़ाली..... अभी मेरे पास तेरे सवाल का जवाब नहीं है|” वैसे भी जवाब नहीं था उसके पास| नीलकांत की ज़िद्द पर मुम्बई के स्टूडियो मने फ़िल्म का मुहूर्त तो हुआ पर न वह शूटिंग के लिए सिलीगुड़ी गई और न ही इस बार नीलकांत ने ज़िद्द की| “तुम जो बेहतर समझती हो करो| तुम फिल्म करो वो मेरी बात थी..... गोली मारो मेरी बात को|” कहते हुए नीलकांत ने जो लगभग दो घंटे से बैठा शराब पी रहा था उसे आलिंगन में भरकर लाड़ से दुलारा- “अब तो खुश हो|” “हाँ, इस वक़्त मैं खुश हूँ क्योंकि फैसला तुमने मेरे ऊपर छोड़ दिया है| हो सकता है सुबह तक मैं तुम्हें फोन पर फिल्म के लिये हाँ कह दूँ और सिलीगुड़ी चलूँ तुम्हारे साथ|” नीलकांत ने फीकी हँसी हँसते हुए कहा- “चलो, तुम्हें ड्रॉप करते हुए मैं घर चला जाऊँगा|” लेकिन सुबह दीपशिखा ने गौतम को फोन लगाया-“बताओ गौतम मैं क्या करूँ?” “अंतरआत्मा की आवाज़ सुनो दीपशिखा| वहीसच है|” “अगर अंतरआत्मा कहे कि गौतम को प्यार करो तो क्या मान जाऊँ ये बात?” “हाँ..... क्यों नहीं? हम अंतरआत्मा की आवाज़ को नकार नहीं सकते| मेरी अंतरआत्मा ने तुम्हें प्यार करने की इजाज़त दे दी है|” दीपशिखा चौंक पड़ी-“क्या कहा तुमने? गौतम तुम होश में तो हो?” उसने फोन पटक दिया-“ईडियट कहीं का? मेरे और नील के रिश्ते को जानता है फिर भी|” आज रात की फ़्लाइट है नीलकांत की| पहलेदिल्ली, फिर दिल्ली से सिलीगुड़ी|तैयार होकर वह नीलकांत के स्टूडियो आ गई| दिन भर व्यस्तता..... काम..... तैयारी..... दीपशिखा हाथ बँटाती रही| जैसे तैसे फुरसतहोकर शाम को दोनों वहीं बांद्रा वाले स्टूडियो में चले गये| “नहीं मना पाईं न खुद को दीप?” नीलकांत ने दीपशिखा के बालों को सहलाते हुए कहा- “नाहक ही तुम्हारेसामने प्रपोज़ल रखा| तुम चित्रकार, ब्रश और हाथों की सधी दुनिया है तुम्हारी| हम लोग तो कैमरा, एक्शन, टेक, रीटेक, कट, ओ.के. में ही उम्र तबाह कर लेते हैं और फिर दुनिया से पैकअप हो जाता है हमारा|” *** *** ‹ Previous Chapterलौट आओ दीपशिखा - 6 › Next Chapter लौट आओ दीपशिखा - 8 Download Our App Rate & Review Send Review Shambhu Rao 11 month ago Goodto Seeyou 11 month ago komal thakkar 11 month ago Ruhi Preet 11 month ago Priyanka Hirpara 11 month ago More Interesting Options Short Stories Spiritual Stories Novel Episodes Motivational Stories Classic Stories Children Stories Humour stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Social Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Santosh Srivastav Follow Share You May Also Like लौट आओ दीपशिखा - 1 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 2 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 3 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 4 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 5 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 6 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 8 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 9 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 10 by Santosh Srivastav लौट आओ दीपशिखा - 11 by Santosh Srivastav