क्या फिर आओगे?

विवेकानन्द तुम्हें जयंती की बधाई। तुम्हें एक बात बताऊँ तुम्हारा जन्म वर्ष वर्तमान वर्ष से जितना ही दूर होता जा रहा है उतने ही तुम प्रासंगिक हुए जा रहे हो। तुमने उस दौर में जन्म लिया था जब गुमराह करने वालों की तादाद कम थी लेकिन फिर भी तुमने युवाओं को दिशा दिखायी। आज तो गुमराही का आलम ये है कि युवा बिन सोचे-समझे भीड़ का एक हिस्सा बनने के लिए लालायित हैं।

तुमने कहा था कि उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रुको नहीं लेकिन यहाँ न कोई उठना चाह रहा है न ही जागना। बस अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए हर वैध-अवैध प्रयास किए जा रहे हैं और लक्ष्य भी कैसा जो 'स्व' से भरा है 'सर्व' से नहीं। तुम्हारे तो नाम में ही विवेक था जिसका प्रयोग करके तुमने भारतीय ज्ञान का परचम विश्व में फहराया था। युवा तुमसे बहुत प्रभावित थे, आज भी हैं। लेकिन अधिकांश के लिए आज तुम एक बैनर पर बनी आदमकद छवि जैसे हो या उनके झंडे पर बने चित्र से। जिसकी आड़ में वो राष्ट्रभक्त होने का तमगा पा सकें।

तुमने जो कहा, तुम्हारे जो आदर्श थे, तुम्हारी जो अपेक्षाएँ थीं उसे उन्होंने समझा ही कहाँ। हे! विवेक तुम तो यहाँ से चले गए, मोक्ष को भी प्राप्त हुए होगे लेकिन उस देश का क्या जो कभी विश्वगुरु हुआ करता था। आज के युवा को राह दिखाने के लिए केवल तुम्हारा साहित्य ही पर्याप्त नहीं है। उसे पुनः एक विवेक चाहिए। तुम मोक्ष पाकर शांति से कैसे बैठे रह सकते हो? तुम्हें आना होगा, बार-बार आना होगा। बदलते समाज के साथ बदलते युवाओं को बार-बार राह दिखानी होगी। वर्ना सब तुम केवल पूजनीय व्यक्ति बनकर रह जाओगे और विवेकहीन समाज तुम्हारे लक्ष्यों से कोसों दूर होता जाएगा।

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