बँधी नए बंधन में प्यार ही तो चाहती थी,
कहाँ तुम्हारा कोई अधिकार हीचाहती थी!

सपना देखा था उसने भी खुशहाली का,
क्या पता था मौसम आएगा बदहाली का,
आपके जीवन में स्वीकार ही तो चाहती थी,
कहाँ तुम्हारा कोई अधिकार ही चाहती थी!

एक चुटकी सिंदूर की क्या सज़ा पाई उसने,
ले कर घाव तन पर ये क़ीमत चुकाई उसने,
बस थोड़ा प्रेम का उपहार ही तो चाहती थी,
कहाँ तुम्हारा कोई अधिकार ही चाहती थी!

आज मिला है पर उसको ऐसा गठबंधन,
ताला ज़ुबान पर और रिवाज़ों का बंधन,
अपने सपनों का आकार ही तो चाहती थी,
कहाँ तुम्हारा कोई अधिकार ही चाहती थी!

नारी है नारायणी मत करो ऐसे तिरस्कार,
मत दो उसको तुम घावों का ये पुरस्कार,
ज़ंज़ीर नहीं पायल की झनकार चाहती थी,
कहाँ तुम्हारा कोई अधिकार ही चाहती थी!

Hindi Poem by Bansari Rathod : 111256278

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