तुम बेइंतिहा बरसती बारिश
में कच्ची मिट्टी का ढेर हुं,
जानते थे मैं तुम्हारे इख़ितयार में हुं पिघल चुकी थी मैं ,
बहा कर ले गये थे तुम अपने साथ मुझे भी
फिर किसी लम्हा तुम अपनी तासीर से उस बारिश की तरहा ओजल हो गये ,
जानती थी बारिश महदूद नहीं होती
जो किसी एक पर बरसे,
मैं मजीद ही वाबस्ता होकर तुमसे उन्स कर बैठी ।
@B