" बारिशें " ??

यूँ बरसात का आना
किसी त्योहार से कम कहाँ होता था।

माटी की सौंधी खुशबू और दरख़्तों के हरे पत्ते
गरजते चमकते बादलों और हवाओं के झोंके से
बरसात की आहट मिलती थी।

मौसम की पहली बारिश
स्कूल की छुट्टी से मालूम देती थी।

सर्दी लग जाएगी, मीठी डाँट के बाद भी
आँगन के भरे पानी में नहाने से मालूम देती थी।

पतले, मोटे रेंग कर घर में घुसते अनचाहे मेहमान
उन मासूम केचुओं से मालूम देती थी।

इनसे बचते-बचाते, डर कर या डरा कर चीखते हुए
फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने से मालूम देती थी।

झमाझम गिरते पानी में कभी छतरी के साथ
तो कभी बेवजह भीग जाने पर मालूम देती थी।

गीली छतरी के कोरों से टपकती बूंदों से
सूखे फर्श पर बन आई जलधारों संग मालूम देती थी।

सुबह माँ के उठाने पर " रेनी डे है " बोल
मुँह तकिए में छुपा लेने से मालूम देती थी।

किवाड़ों को खटखटाती वो प्यारी सी बारिश
पकौड़ी और गर्म चाय से मालूम देती थी।

और तब भी मालूम देती थी
जब माँ की आवाज कानों संग खेलती थी -
" बच्चे तो सो रहे हैं पकौड़ियाँ हम ही खतम कर देते हैं। "
और बहाने से आँखें मूंद सोते हुए हम
एक पल में खटिया से नीचे कूद जाते थे।

हाँ ! बरसात का आना
एक त्योहार ही तो है।
                                         नीलिमा कुमार
                                    ( मौलिक एवं स्वरचित )

Hindi Poem by Neelima Kumar : 111204647

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