" रेलवे प्लेटफार्म "

गर्मी की तपती साँझ -
एक रेलवे प्लेटफार्म
और उस का मुख्य द्वार।
अपने परिचित का
इन्तज़ार करती मैं,
आते हर मुसाफिर का चेहरा पढ़ रही थी।

कुछ मुस्कुराते,
कुछ बदहाल,
कुछ ढूंढते चेहरे,
कुछ गाड़ी छूट जाने के डर से भागते
परेशान चेहरे,
और कुछ
विलम्ब की सूचना पढ़- पढ़कर
झुंझलाए क्रोधित चेहरे,
कुछ रेल से उतरते स्वजनों का
हर्षित मन स्वागत करते चेहरे,
और कुछ
घंटों इन्तज़ार के बाद
पसीने से लथपथ
चुपके-चुपके ऑफिस फोन कर
ठंडी आह भर
स्वागत करते चेहरे।

कुछ सोचने को मजबूर कर गए -

क्या ऐसे ही उतार-चढ़ाव
नहीं दिखते
जीवन रूपी प्लेटफार्म पर ?

अगर हाँ -
तो क्यों मानव
दुखों की गठरी ढ़ोता है ?
क्यों विष पीता है ?
जीवन अन्त कर लेता है।
क्यों नहीं बन सकता उस मुसाफ़िर जैसा
जो अपनी मंजिल पाने पर
रेलवे प्लेटफार्म छोड़ देता है,
सारी तपिश वहीं भूल
अपनों को साथ ले
प्लेटफार्म से बाहर निकल आता है,
और
इंद्रधनुषी रंगों से बुनी,
अपनी प्यारी दुनिया में
एक बार फिर खो जाता है।
एक बार फिर खो जाता है।

                       नीलिमा कुमार
                 ( स्वरचित मौलिक रचना )

Hindi Thought by Neelima Kumar : 111198976

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