#Kavyotsav_2
#प्रणय

घर से सारे काम खत्म कर के,
वो अपने ज़ुल्फो को
ढीला करती ही है
अंगड़ाने को
सुस्ताने को
की
मैं उनींदा निर्लज्ज
चाय की मांग कर देता हूँ
मस्ताने को
दिल लगाने को

फिर क्या
फिर अपने ढीले जुड़े को बांध पिन लगाकर
रसोई की तरफ भागती ..
हाथों की तपिश से पानी उबालती
ताजगी पत्ती
महक इलायची
शहद मिठास
चमकता दूध
नस नस जगे
ऐसी तीखी अदरक वो डालती

नरम कोमल मखमली उल्टे हाथ
और कलाई के संगम पर
उबलती एक बूंद वो
रखती है
मिठास चखती है
बस यही अदायें देखने को
मेरी आँखें तरसती हैं

आखिर यूँ चाय चाय
कह के नींद से जगाने में भी
क्या धरा है
खनका है कंगना
फिर प्याली से ..
चाय का जायका
आज खुश्बू भरा है ..

English Poem by S Kumar : 111161831
अnu 5 years ago

वाह कुमार जी बहुत खूब बयां किया आपने। ??

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