बस एक कदम... - 2

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बस एक कदम.... ज़किया ज़ुबैरी (2) साढ़े ग्यारह बजे वाली सफ़ेद रात में डर ज़रा अधिक ही समाया होता है। ऐसे में आहिस्ता आहिस्ता गाड़ी स्टेशन में दाख़िल हुई। गाड़ी की खिड़कियों में से रौशनी बाहर झांकती दिखाई देती और हर रौशनी के बीच से एक गोला सा नज़र आता क्योंकि यात्रियों के कंधे ट्रेन की दीवार की ओट में होते। हां ! कुछ लम्बे तड़ंगे इन्सानों के गोल सिर ऊपर को होते तो वे बेसर के भूत से बन जाते। शैली सड़क पर कार के भीतर से ही उन रौशनी के गोलों में से घनश्याम का सिर ढूंढने की